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________________ जयोदय-महाकाव्यम् स्वर्गोदारेति । अहमिमं शरदः क्षणं स्वर्गोदारं स्वर्गसदृशमये जानामि, यतः सुमनसां सज्जनानां देवानां वा, ईशे भगवति स्वामिनि वा प्रसिद्ध आदरो यत्र तं तादृशं तथा यत्र उद्दामस्य प्रशंसनीयस्य सुधाकरस्य चन्द्रस्य अमृतखनेरुद्गमविधिः, सत्त्वानां प्रतिष्ठायां क्षमो वर्तेत, अपि पुनः पुनीतसारमधुरः पुनीतेन पवित्रेण सारेण मधुरा मधुदात्री मनोहरा वा पद्मालयानां सरोवराणां लक्ष्मीणाञ्च ततिः पङ्क्तिस्तिष्ठन्तो स्थितिमती स्वयमेवायता सविस्तारा नवनवारम्भा नवीनतरारम्भवती, अमन्दस्थितिः प्रचुररूपापि चारम्भादेव वश्या च ॥ ६८ ॥ २१८ श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं, वाणीभूषणवर्णनं घृतवरी देवी च यं घीचयम् ॥ कान्ताप्तिप्रतिपत्तिसाधनतया a सर्गश्चतुर्थोऽसकी, तत्प्रोक्तस्य समाप्तिमेति सरसः काव्यप्रबन्धस्य को ॥ ४ ॥ ॥ इति जयोदय - महाकाव्ये चतुर्थः सर्गः ॥ अर्थ : यह शरद् ऋतुका समय स्वर्गके समान उदार है, जिसमें भले पुरुषोंका भगवान् के प्रति आदरभाव होता है । स्वर्ग में भी देवताओंका इन्द्रके प्रति आदरभाव होता है । शरद् ऋतु में सुधाकर चन्द्रमा ) का विशेष समादर होता है, जिससे लोग प्रसन्न हो जाते हैं, तो स्वर्ग में भी सुधा ( अमृत ) का समागम होता है जिसके प्रति प्राणीमात्रका आदरभाव होता है । शरऋतु में कमलोंसे संपन्न सरोवरोंकी पंक्ति खिल जाती है जो कि सुहावनी होती है, तो स्वर्ग में लक्ष्मीके मकानोंकी पंक्ति सुहावनी होती है । शरदऋतु में नवीन के लेके स्तम्भ अधिकतासे हो जाते हैं, तो स्वर्ग में भी रम्भा नामकी सुन्दर अप्सरा होती है । यहाँ स्वयंवरमति नामका चक्रबन्ध है ॥ ६८ ॥ चतुर्थ सर्ग समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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