SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१३ ५८-५९ ] चतुषः सर्गः २१३ भूरिधान्यहितवृत्तिमती तनिर्जरत्वमधिगन्तुमपीतः । संविकाशयति वा जडजातमप्युदर्कमनुयात्यथवाऽतः ॥ ५८॥ भूरिधान्येति । इयं शरत् तत्प्रसिद्धं निर्जरत्वं जलरहितत्वं देवत्वं वाऽधिगन्तं स्वीकर्तुमपि पुनरितो भूरिधान्यस्य विपुलान्नस्य हिते वृत्तिमती, पक्षे भूरिया अनेकप्रकारेण अन्येषां हिते वृत्तिमती वा । जडजातं डलयोरभेदात् जलजातं कमलं, पक्षे जडजातं जडस्य अज्ञस्य जातं पुत्रमपि संविकाशयति प्रसन्नीकरोति । अथवा उवर्कमुखतं सन्तापकरं सूर्य भाविवृत्तान्त अनुयाति ॥ ५८॥ नीरमुज्ज्वलजलोद्भवनिष्ठं प्रोन्लसत्तममरालविशिष्टम् । सोमशोभिनभसो भयुतस्य तुल्यतामनुदधाति हि तस्य ।। ५९ ।। नीरमिति । शरदि उज्ज्वलविकाशिभिः जलोद्भवैः कमलैंनिष्ठं युक्तं तथा प्रोल्लस. तमेन परमप्रसक्तियुक्तन मरालेन हंसेन विशिष्टं नीरं सरोवरजलं तत् तस्य, भैनक्षत्रैर्युतस्य तथा सोमेन चन्द्रेण शोभा यस्य तत्तादृग् यन्नभो गगनं तस्य तुल्यतां समतामनुदधाति, होति निश्चये । 'उज्ज्वलो वाच्यवद्दीप्से परिव्यक्तविकाशिः' इति विश्वलोचनः ॥ ५९ ॥ वैसे ही शरद्ऋतुमें मेघ नहीं रहते । वृद्धा स्त्रीके बाल ( केश ) पक जाते हैं तो शरद्ऋतुमें धान्यकी बालें भी पक जाती हैं ॥ ५७ ॥ अन्वय : ( इयं ) शरत् तत् निर्जरत्वम् अधिगन्तुम् अपि इतः भूरिधान्यहितवृत्तिमती । वा अतः या जडजातम् अपि संविकाशयति अपि । अथवा उदर्कम् अनुयाति । अर्थ : यह शरद् किसी भली स्त्रीकी तरह है जो निर्जरपन ( देवतापन ) प्राप्त करनेके लिए अनेक प्रकारोंसे औरोंका भला करने में लगी रहती है। शरद्ऋतु भी निर्जरपन (जलरहितता ) प्राप्त करती हुई अनेक प्रकारके धान्योंकी संपत्ति देनेवाली है। भली स्त्री मूर्खके पुत्रको भी समझाकर ठीक मार्गपर ले आती है तो शरदऋतु कमलको विकसित करती है। भली स्त्री भविष्यत्सौभाग्यवृत्तान्तको प्राप्त करती है, तो शरदऋतु भी प्रचण्ड सूर्यको धारण करतो है। श्लिष्ट पदोंसे ये दोनों अर्थ निकलते हैं ॥ ५८ ॥ अन्वय : शरदि उज्ज्वलजलोद्भवनिष्ठं प्रोल्लसत्तममरालविशिष्टं नीरं तस्य भयुतस्य सोमशोभिनभसः तुल्यताम् अनुदधाति हि। अर्थ : इस शरदऋतुमें सरोवरका जल विकसित कमलोंसे युक्त और प्रसन्न शुभ्र हँसपक्षोसे युक्त हो जाता है। इसलिए निश्चय ही वह नक्षत्रोंसे युक्त चमकते हुए चन्द्रमावाले आकाशकी समानता करने लगता है ॥ ५९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy