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________________ ८०-८१ ] तृतीयः सर्गः १७३ तेरथिभिः आराध्या सेव्या, नगर्या प्राधान्येन सस्त्रीकाणामेव निवासात् । पक्षे सुरतायादेवत्वस्याथिभिः आराध्येति । श्लिष्टोपमालङ्कृतिः ।। ७९ ।। वर्णसाङ्कर्य - सम्भूत - विचित्र - चरितैरिह | जनानां चित्तहारिण्यो गणिका इव भित्तिकाः ॥ ८० ॥ वर्णसङ्कर्येति । इह प्रकरणप्राप्तायां नगर्यां भित्तिकाः श्रीमत्सद्मकुडघानि गणिका वेश्या इव भान्ति । यतो वर्णानां शुक्ल-नील-पीतादीनां साङ्कर्येण मिश्रभावेन, पक्षे वर्णानां ब्राह्मणादीनां व्यत्ययेन सम्भूतैरुत्पन्नः विचित्रैविविधप्रकारः चरित्रैरिङ्गितैः चाकचिक्याविभिश्चेष्टाविभिश्व चित्तहारिण्यश्चित्ताकषिण्यः सन्तीति शेषः । श्लेषोपमालङ्कारः ॥८०॥ वर्णाश्रमच्छवित्राणा मत्तवारणराजिताः । नृपा इव गृहा भान्ति श्रीमत्तोरणतः स्थिताः ।। ८१ ॥ वर्णाश्रमेति । गृहास्तत्रत्या नृपा इव भान्ति शोभन्ते, यतो वर्णानां शुक्ल-कृष्णावीनामासमन्तात् श्रमः प्रयत्नो यासु तासां छबीनां प्रतिमूर्तीनां, पक्षे वर्णा ब्राह्मणादय आश्र पुरी जिस प्रकार अमृतका आधार, चित्रा आदि अप्सराओंसे युक्त एवं देवताओंके समूह द्वारा सेव्य होती है उसी प्रकार काशीपुरी भी कलीसे पुती और सर्वत्र चित्र आदिसे मनोहर और शृंगारप्रिय लोगों द्वारा सेव्य है ।। ७९ ॥ अन्वय : इह वर्णसाङ्कर्य संभूत विचित्रचरितः जनानां चित्तहारिण्यः गणिकाः इव भित्तिका: ( भान्ति ) | अर्थ : वहाँकी भित्तियाँ वेश्याओं के समान प्रतीत होती हैं, क्योंकि जैसे वेश्याएँ ब्राह्मणादि वर्णसंकरता के कारण उत्पन्न अपने चित्र-विचित्र चाकचिक्य एवं चेष्टाओं द्वारा लोगोंका मन हर लेती हैं, वैसे ही वहाँकी भित्तियाँ रंगों के मिश्रणसे अंकित विविध प्रकारके चित्रोंसे कामो लोगोंका चित्त बरबस लुभा लेती हैं ॥ ८० ॥ अन्वय : ( तत्र ) वर्णाश्रमच्छबित्राणाः मत्तवारणराजिताः श्रीमत्तोरणतः स्थिताः गृहाः नृपाः इव भान्ति । अर्थ : वहाँके भवन राजाओंके समान शोभित होते, हैं, क्योंकि जैसे राजालोग वर्णाश्रमको शोभनीय परम्पराके संरक्षक होते हैं, मत्त हाथियोंपर बैठकर चलते हैं और प्रशंसनीय रण-संग्राम में धैर्य के साथ सुस्थिर रहते हैं, वैसे ही भवन भी अनेक रंगोंवाले चित्रोंसे युक्त हैं, खिड़कियों- बंदनवारोंसे सुशोभित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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