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जयोदय-महाकाव्यम्
[७८-७९ विशालापि सुशाला सा नगरी सगरीत्यभूत् ।
वसुधा महिता तावद्युक्ता नवसुधान्वयैः ॥ ७८ ॥ विशालेति । या सगरी च नगरी सम्पूर्णाऽपि पुरीत्यर्थः। विशाला शालारहिताऽपि सुशालास्तीति विरोषः, विशाला विस्तीर्णेति परिहारः । वसुषायां पृथिव्यां महिता माननीयाऽपि वसुधाया अन्वयः युक्ता नेति विरोधः, तस्मान्नवैतनैः सुषाया अनुलेपनयुक्तति परिहारः। यद्वा, वसूनां हाटकानां धाम्नां गृहाणां हितमनुवासनं यस्यां सा वसुधामहिताऽस्तीति । विरोधाभासः ॥ ७८॥
सर्वत्रैव सुधाधाराऽथ चित्रादिमनोहरा ।
सुरतार्थिभिराराध्याऽमरेवासौ पुरी पुरी ॥ ७९ ॥ सर्वत्रैवेति । या पुरी, अमरा पुरीव भाति, यतः सर्वत्रैव सर्वावयवेषु सुधायाः श्वेतमृत्तिकाया आधारभूता, पले सुधाया अमृतस्य धारा प्रवाहो यस्यामेवम्भूता । अथ चित्राविभिर्मनोहरा चित्राणि नानाकाराणि पदार्थप्रतिबिम्बानि, आदौ येषां तानि काच-कनकमणि-मुक्ताकलशादीनि तैमनोहरा रमणीया। यद्वा चित्राभिरप्सरोभिः मनोहरा । सुरतस्य
निर्दोष है। कारण यह विद्याके आनन्दसे विवणित है।
विशेष : यहाँ श्लेष द्वारा शालाके उपमानरूपमें जैनन्यायके ग्रंथ अष्टसाहस्रोका संकेत किया गया है, जो विद्यानन्द आचार्य द्वारा रचित है। इस अष्टसाहस्रीका मूलाधार ( जिसपर यह बनायी गयी है ) देवागम-स्तोत्र है, जिसपर अकलंकदेवकी कृति है अष्टशती और अष्टसाहस्री उसीकी व्याख्या है। वह अष्टसाहस्री विज्ञजनों द्वारा सेवनीय है ।। ७७ ॥
अन्वय : या सगरी च नगरी विशाला अपि सुशाला। वसुधामहिता अपि नवसुधान्वयः तावत् युक्ता।
अर्थ : यह सारी काशीनगरी सुन्दर शालाओंसे युक्त होकर भी विशाल है। इसी तरह वसुधा या पृथ्वीपर माननीय होकर वह नगरी भी सफेद कलो, नये चूनेसे पुती हुई है। यहाँ 'विशालापि सुशाला' और 'वसधान्वयैः युक्ता' यह शाब्दिक विरोध प्रतीत होता है, जो एक अलंकार है ।। ७८ ।।
अन्वय : अथ असो पुरी अमरापुरी इव भाति । यतः सर्वत्र एव सुधाधारा चित्रादिमनोहरा सुरसाथिभिः आराध्या ( अस्ति )।
अर्थ : वह काशीपुरी ठीक अमरपुरी ( स्वर्ग ) के समान है, क्योंकि अमर
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