SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८] तृतीयः सर्गः 1 दुग्धजलयोः सुविवेचना पृथक्करणं तद्वतः राजहंसस्येव तस्य भूपतेः सुखगतायपक्षतिः सुखेन गतं गमनं जीवननिर्वहणं तस्मै पक्षतिः सभा सा, मानस्य पदप्रतिष्ठानस्य समयः सङकेतो यस्मिस्तं संस्तवं रक्षति स्म । हंसपक्षे शोभना खगता पक्षिभावः सुखगता, तस्या आय आगमनं सम्प्राप्तिर्यस्य स सुखगतायस्तस्य पक्षतिर्नभसि उड्डयनसाधनं नाम सा, मानसमयं मानसाख्यसरोवररूपं संस्तवं रक्षति स्म । श्लेषोपमालङ्कारः ॥ ७ ॥ हासमेत जडताप्रतिष्ठतिः किन्तु यत्र बहुधाऽन्यनिष्ठितिः । श्री शरत्ममनुयायिनीत्यभाद् राजहंसपरिवारिणी १३५ हासमिति । या सभा श्रीशरत्समनुयायिनी शरवृतोरनुकरणशीला अभाच्छुशुभे । तद्यथा-यत्र जडताया मूर्खभावस्य पक्षे जलबाहुल्यस्य प्रतिष्ठितिः स्थापना, ह्रासमेति प्रणश्यति, किन्तु यत्र बहुधाऽन्येषां सर्वसाधारणानां तिष्ठतिरुपस्थितिः । पक्षे बहुधान्यानां व्रीह्मादीनां निष्ठितः खलेषु भवति । राजहंसा भूपवरास्तेषां परिवारोऽस्यामस्तीति सा, शरच्च राजहंसपरिवृता भवति । अथवा राजहंसैः परिगतं वारि नयति धारयतीति राजहंसपरिवारिणीति बोध्यम् । पूर्वोक्त एवालङ्कारः ॥ ८ ॥ सभा ।। ८ । पंखमूलों के बदौलत गगन में उड़कर वह मानसविहारकी अपनी प्रसिद्धि बनाये रखता है, वैसे ही महाराज जयकुमारकी 'सुखागतायपक्षतिः' अर्थात् सुखसे जीवन-नर्वाह के लिए संघटित शासन परिषद् उसके सम्मानपूर्ण परिचयकी रक्षा करती थी, वह सम्मानदृष्टिसे ही परिचित हुआ करता था । जैसे राजहंस स्वभावतः दूधका दूध और पानीका पानी कर देता है, वैसे ही यह राजा भी स्वभावतः गुण और दोषका विवेक करनेवाला था । इसी तरह जैसे राजहंस चांदी के पात्र की तरह शुभ्र श्वेतवर्णका होता है, वैसे ही यह राजा भी राजतत्त्व या राजनीतिका पण्डित ( राजतत्त्वविशदस्य ) है || ७ || अन्वय : तस्य सभा राजहंसपरिवारिणी श्रीशरत्समनुयायिनी अभात् यत्र जडताप्रतिष्ठितिः ह्रासम् एति, इति बहुधान्यनिष्ठितिः भवति । Jain Education International अर्थ : उस राजाकी सभा शरद ऋतुका अनुसरण करती हुई शोभित हो रही थी । कारण, शरद् ऋतु में राजहंसों का संचार होने लगता है तो राजाकी सभा में भी अनेक प्रसिद्ध राजा बैठते थे । जैसे शरमें जल कम हो जाता है वैसे ही राजाकी सभा में भी जड़ता या अविचारिताका अभाव था । शरद् ऋतु में बहुत-सा धान्य इकट्ठा होता है तो सभामें भी अधिकतर आये हुए सर्वसाधारण लोगों की प्रतिष्ठा होती थी ॥ ८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy