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११७-११८ ]
द्वितीयः सर्गः
वर्णिगेहिवनवासियोगिनामाश्रमान् परिपठन्ति ते जिनाः । नीतिरस्त्यखिलमर्त्य भोगिनी सूक्तिरेव वृषभुन्नियोगिनी ॥ ११७ ॥
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वर्णगेहीति । ते लोकख्याता जिना आश्रमान् वणि- गेहि वनवासि योगिनां भेदेन चतुर्धा पठन्ति । तत्र नीतिस्तु तत्तदाश्रमगतान् निखिलान् मर्त्यान् भुनन्तीति । किन्तु सूक्तिस्तत्तदाश्रमगतानां मध्ये वृषभृतां तदाश्रमगतनियमपालकानामेव नियोगिनी ॥ ११७ ॥ स्वस्वकर्मनिरतस्तु धारयन् तद्गतोपनियमान् सुधारयन् ।
सारयन् पथि निजं परानथाऽऽधारयेन्नृपतिरीतिहुत्कथाः ।। ११८ ॥
स्वस्वकर्मेति । अथ नृपतिः शासकस्तद्गतान् वर्णाश्रमगतान् उपनियमान् सुधारयन्, आश्रमस्थान् स्वस्वकर्मतत्परान् धारयन् निजमय परान् प्रजाजनान् धारयन् संस्थापयन् सन्, ईति हरतीति इतिहृत्कथाः पुरातनपुरुषाणामुपद्रवहराः कथाः आधारयेत्, यतः किल निराकुलता भवेदिति शेषः ॥ ११८ ॥
अन्वय : ते जिना: वणिगेहिवनवासियोगिनाम् आश्रमान् परिपठन्ति । तत्र नीति: अखिलमर्त्यभोगिनी ( अस्ति ) । किन्तु सूक्तिः वृषभृन्नियोगिनी एव ।
अर्थ : ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम के भेदसे आश्रम चार तरहके बताये हैं । वहाँ नीति तो उस उस आश्रममें रहनेवाले सभी लोगोंको उस आश्रम वाला मानती है । किन्तु सन्तोंकी सूक्ति जिस आश्रम में वह पुरुष है, उस उस आश्रमके नियमोंका पूर्ण पालन करनेपर ही उसे उस आश्रमवाला कहती है ।
विशेष : सामान्य नीति तो सभी साधुओं को 'साधु' कहती है । किन्तु संतोंकी वाणीमें तो आत्महितके साधक तथा साधुओंके योग्य कर्तव्यों में निरत रहनेवाले साधु ही 'साधु' कहे जाते हैं । ऐसे ही अन्य आश्रमोंके विषय में भी समझना चाहिए ॥ ११७ ॥
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अन्वय : अथ नृपतिः ( तान् ) स्वस्वकर्मनिरतान् धारयन् तद्गतोपनियमान् च सुधारयन् निजं परान् (च ) पथि सारयन् ईतिहृत्कथाः आधारयेत् ।
अर्थ : अब जो राजा है, उसका कर्तव्य है कि प्रत्येक आश्रमवासीको उस उस आश्रमके कर्मों, नियमोंपर चलाता रहे। समय- समयपर उनके लिए जिस तरह वे ठीक चल सकें, वैसे उपनियम बनाता रहे । स्वयं सन्मार्ग पर चले तथा दूसरों को भी सन्मार्ग पर लगाये रहे तथा एतदर्थ इति-भीति आदि दूर करनेवाले उपाय भी करता रहे ।। ११८ ॥
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