________________
जयोदय- महाकाव्यम्
[ ११५-११६
शूद्राणामाजीवा जीविका विश्वतः सर्वेषां मुदं हर्ष राति ददात्येवंभूता खलु ॥ ११४ ॥ निजनिजकर्मणि कुशलाः परथाऽमी मूर्ध्नि संपतन्मुशलाः । किमु मस्तकेन चरणं पद्भ्यामथवा समुद्धरणम् ॥ ११५ ॥
११०
निजनिजेति । अभी सर्वे निजनिजकर्मणि कुशलाः सन्तु, अन्योऽन्यजीविकासु आक्रमणं न कुर्वन्त्वित्यर्थः । परथाऽन्यथा पुनः सर्वे स्वहस्तेन मूध्नि मस्तके सम्पतन्मुशलं येषां ते तथा स्युः । यतो मस्तकेन चरणं गमनं अथवा पद्भ्यां समुद्धरणं भारोत्थापनं भवति किमु ॥ ११५ ॥
स्वान्वय कर्मदस्मादस्तु
समारब्धपापपथभस्मा ।
कचिदाश्रमे समुचिते निरतोऽसावात्मने रुचिते ॥ ११६ ॥ स्वान्वयेति । अस्मात्कारणात् जनः स्वान्वयस्य स्वकुलस्य कर्म करोति तादृशोऽस्तु । किञ्च, समारब्ध आरब्धः पापपथस्य भस्म येन सः दुरितनाशतत्परः स्यात् । असौ क्वचिद् आत्मने रुचिते प्रिये समुचिते आश्रमे निरतस्तत्परः स्यात् ॥ ११६ ॥
अर्थ : घड़ा आदि बनानेरूप शिल्पकलाद्वारा अथवा नाचना-गाना आदि कला-कौशलद्वारा प्रजाकी सेवा करना और उसे प्रसन्न करते रहना शूद्रोंकी आजीविका है, जो निश्चय ही सबको हर्ष-सुख देनेवाली है ॥ ११४ ॥
अन्वय : अमी निजनिजकर्मणि कुशलाः ( सन्तु ) । परथा पुनः मूर्ध्नि संपतन्मुशलाः । ( यतः ) मस्तकेन चरणम् अथवा पद्भ्यां समुद्धरणं किमु ।
अर्थ : ये सभी लोग अपने-अपने कुलके अनुसार आजीविका चलाने में कुशल बने रहें, एक दूसरेकी आजीविका पर आक्रमण करनेका विचार न करें । नहीं तो फिर अपने हाथ से ही अपने सिर में मूसल मारनेवाला हिसाब हो सकता है । क्योंकि क्या कभी मस्तकसे चलना अथवा पैरोंसे बोझा ढोना : बन सकता है ।। ११५ ।।
अन्वय : अस्मात् ( जन: ) स्वान्वयकर्मकृत् समारब्धपापपथभस्मा आत्मनः रुचिते क्वचित् समुचिते आश्रमे निरतः ( स्यात् ) ।
अर्थ : इसीलिए मनुष्यको चाहिए कि वह अपने कुलक्रमसे आयी हुई आजीविकाको चलाता रहे और पाप पाखण्ड से बचता रहे एवं जैसा अपने आपको रुचे, उसी समुचित आश्रम में निरत रहकर अपना जीवन बिताये । लेकिन जिस आश्रमको जब तक अपनाये रहे, तबतक उस आश्रमके नियमों का उल्लंघन कभी न करे ॥ ११६ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org