SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०७ १०९-११० ] द्वितीयः सर्गः योऽभिवर्गपरिपूर्तितत्परो गौणीकृतत्रिवर्गमार्गोऽपवर्गमार्गाभिमुखः सोऽपपडित पडिक्तवर्ज यथा स्यात्तथा अवशेषं देव ऋषिभिः सेव्यं ग्रहणयोग्यं तवनवशेषमन्नम् आहरतु भक्षयतु ।। १०८॥ राक्षसाशनमुपात्ततामसं नाशि पाशविकमप्युतावशम् । तवयं परिहरेत्तु दूरतः कः किलास्तु सुजनोऽपदे रतः ॥ १०९ ।। राक्षसाशनमिति । राक्षसानामशनं किल उपात्ततामसं तमोगुणयुक्तं तन्नाशि मनुष्यताया नाशकं तथा पाशविकं पशुभक्षणीयं तदवशमिन्द्रियलम्पटतापूर्ण तदपि नाशि, अतस्तद्वयं दूरतः परिहरेत् । यः कः सज्जनो योऽपदे अयोग्यस्थाने रतोऽनुरक्तः स्यात्, न कोऽपीत्यर्थः ॥ १०९ ॥ सर्वस्यार्थकुलस्य साधकतया सार्थीकृतात्मप्रथं निष्कादयंतदात्वमूलहरणं तीर्थाय सम्यकथम् । अर्थ स्वोचितवृत्तितो ह्यनुभवेदानुबन्धेन यः स श्रीमान् मुदमेति तावदभितः शश्वत्प्रतिष्ठाश्रयः ॥ ११० ॥ अर्थ : इन्हीं गृहस्थोंमें जो आर्ष-मार्गका आदर करनेवाला हो, जिसका हृदय सुदढ़ हो और त्रिवर्ग-मार्गकी ओरसे हटकर जिसका झुकाव मोक्षमार्गकी ओर हो गया हो, ऐसा व्यक्ति पंक्ति-भोजन न करके अकेला ही शुद्ध भोजन करे और जूठन न छोड़े ॥ १०८ ॥ अन्वय : उपात्ततामसं राक्षसाशनं नाशि, उत पाशविकम् अपि अवशम्, तद्वयं तु दूरतः परिहरेत् । कः सुजनः किल अपदे रतः अस्तु । अर्थ : तामसता रखनेवाला राक्षसाशन ( मद्य-मांसादिरूप भोजन ) मानवताका नाशक है और पाशविक भोजन, जो इन्द्रिय-लम्पटताको लिये होता है, वह भी अपने आपका बिगाड़ करनेवाला, नाशक है। इन दोनों तरहके भोजनोंको मनुष्य दूरसे ही छोड़ दे, क्योंकि समझदार मनुष्य अयोग्य स्थानमें प्रवृत्ति कैसे कर सकता है ? ।। १०९ ।। अन्वय : सर्वस्य अर्थकुलस्य साधकतया सार्थीकृतात्मप्रथं निष्कादर्यतदात्वमूलहरणं तीर्थाय सम्यक्कथम् अर्थ यः स्वोचितवृत्तितः अर्थानुबन्धेन अनुभवेत्, हि सः श्रीमान् शश्वत्-प्रतिष्ठाश्रयः सन् तावत् अभितः मुदम् एति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy