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-धर्मरसायन
प्रतिबोधितो हि सन् अन्यैः सुरैः सुरवर एवम् । ततःकरोतिमहापूजांभक्त्या जिनवरेन्द्राणाम्।।174||
अन्य देवों के द्वारा इस प्रकार प्रतिबोधित किये जाने पर वह सुरश्रेष्ठ, श्रेष्ठ जिनेन्द्रों की भक्तिभाव से महापूजा करता है।
कुणइ पुणो वि य तुट्ठो अडवेलालोयणं च सो देओ। वरणाडयंस पच्छाकुणइपुणो पुव्वकयउति॥1751 करोति पुनरपिच तुष्टः अष्टवेलालोचनं च स देवः। वरनाटकंच प्रेक्ष्य करोतिपुन:पूर्वकर्मइति||175||
वह देव संतुष्ट होकर जिनेन्द्र भगवान् का अष्टवेला (आठ पहर) तक दर्शन करता है और दिव्य नाटक को देखकर फिर पूर्वोक्त कर्मों को करता है।
दिव्वच्छराहिं य समं उत्तंगपउहाराहिं चिरकालं । अणुहवइ कामभोए अद्वगुणरिद्धिसंपण्णो ||176।। दिव्याप्सरोभिश्च समं उत्तुंगपटुहाराभिः चिरकालं। अनुभवतिकामभोगान् अष्टगुणर्द्धिसम्पन्नः।।176||
आठ गुणों वाली ऋद्धि (विभूति या शक्ति) से सम्पन्न वह देव अति उत्तम तथा सुन्दर (चमचमाते हुए) हार धारण करने वाली दिव्य अप्सराओं के साथ चिरकाल तक कामभोगों का अनुभव करता है।
अणिमं महिमं लहिमं पत्ती पायम्म कामरूवित्तं । ईसत्तं च वसित्तं अद्वगुणा होंति णायव्वा ।।177। अणिमामहिमा लघिमा प्राप्ति: प्राकाम्यंकामरूपित्वम्। ईशित्वंचवशित्वं अष्टगुणा भवन्ति ज्ञातव्याः।।177||
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