SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मरसायन -54 उस देव को अभिषेकगृह (स्नानगृह) ले जाकर देवता उसका अभिषेक करते हैं और फिर मनोहर तथा रमणीय अर्हत्-गृह में लाते हैं। बहुभूसणेहि देहं भूसंता तस्स दि (व्व) मंतेहिं । अहिसिंचिऊण पुणरवि देवा बंधंति वरपट्ट।।171|| बहुभूषणैः देहं भूषयन् तस्य दिव्यमन्त्रैः । अभिषिच्य पुनरपि देवा बध्नन्ति वरपट्टम्।।171|| फिर अनेक आभूषणों से उसके शरीर को सजाकर तथा दिव्य मन्त्रों से उसका अभिषेक करके देवता उसे श्रेष्ठ मुकुट (वरपट्ट) पहनाते हैं। सिंहासणद्वियस्स हु सुहगेहेसु सुठु रमणीए। उवगम केइ देवा जोगाइं कहंति कम्माइं ।।172|| पढमं जिणंदपूयं अविचलवरलोयणं पुणो पेच्छा । वरणाडयरस पिच्छातहमाणिय दिव्व बहुआउI1731 सिंहासनस्थितस्य हि शुभगृहेषु सुष्ठु रमणीयेषु । उपगम्यकेचिदेवायोग्यानिकथयन्ति कर्माणि||172|| प्रथमं जिनेन्द्रपूजा अविचलवरलोचनं पुनः प्रेक्षा। वरनाटकस्यप्रेक्षातत:मन्यस्व दिव्यबहुआयुः।। 173|| जब वह देव अतीव रमणीय एवं शुभ भवनों में सिंहासनारूढ़ हो जाता है तब कुछ देवतासमीपजाकर उसे करणीय कार्यबतलाते हैं कि सर्वप्रथम जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करें, फिर अपलकदृष्टि से जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करें और फिर दिव्य नाटक आदिदेखते हुए आप दिव्य एवं दीर्घ जीवन व्यतीत करें। पडिकोडियो इ इंतो काय कि सोईि बागवणे एवं पडिबोहिओ हु संतो अण्णेहिं सुरेहिं सुरवरो एवं । तो कुणइ महापूअं भत्तीए जिणवरिंदाणं ।। 174|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy