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________________ 53 धर्मरसायन ज्ञात्वा निरवशेषं पूर्वभवे च जिनपूजा रचिता । तत: करोति नमस्कारंभक्त्या जिनवरेन्द्राणाम्।।167।। पूर्णरूप से अपने पूर्वभव को तथा उसमें की गई भगवान् जिनेन्द्र की पूजा को जानकर वह देव उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है। पुणरवि पणमियमत्थो भणइ सुरो अंजलिं सिरे किच्चा। धम्मायरियस्स णमो जेणाहं गाहिओ धम्मो।।168।। पुनरपि प्रणतमस्तक:भणति सुरः अञ्जलिं सिरसि कृत्वा। धर्माचार्याय नमः येनाहं ग्राहितः धर्मः ||168|| वह देव पुनः नतमस्तक होकर तथा सिर पर अञ्जलि बाँधकर अर्थात् हाथ जोड़कर कहता है- 'मेरे धर्माचार्य को नमस्कार है जिनके समीप मैंने धर्म को ग्रहण किया था।' सो मज्झ वंदणीओ अहिगमणीओ य पूअणीओ य। जस्स पसाहेणाहं उप्पण्णो देवलोयम्मि ।।16।। स मम वन्दनीयः अभिगमनीयश्च पूजनीयश्च। यस्य प्रसादेनाहं उत्पन्नो देवलोके ||169|| 'वे (धर्माचार्य) मेरे वन्दनीय, उपास्य (उपासना करने योग्य) तथा पूजनीय हैं, जिनकी कृपा से मैं देव लोक में उत्पन्न हुआ हूँ।' अहिसेहगिहं देवा णाऊण करंति तस्स अहिसेहं। पुणरवि अरुहं गेहं आणंति मणोहरं रम्मं ॥1701 अभिषेकगृहं देवा नीत्वा कुर्वन्ति तस्याभिषेकम् । पुनरपि अर्हद्गृहं आनयन्ति मनोहरं रम्यम्।।170|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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