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श्रीपद्मनन्दि मुनि-प्रणीत 'धम्मरसायणं' धर्म के गूढ तत्त्व की सरल भाषा में व्याख्या करने वाला महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ है। प्राकृत भाषा में निबद्ध इस कृति में कुल 193 गाथाएँ हैं ।
'धम्मरसायणं' की अन्तिम गाथा में ग्रन्थकर्त्ता ने अत्यन्त संक्षेप में अपना परिचय देते हुए कहा है कि 'यम-नियमों से युक्त श्रेष्ठ पद्मनन्दिमुनि ने भव्य जीवों के बोध के लिए संक्षेप में इस धम्मरसायणं ग्रन्थ का प्रणयन किया है'
भवियाण बोहत्थणं इय धम्मरसायणं समासेण । वरपउमणदिमुणिणा रइयं जमणियमजुत्तेण ॥
चरक ने जराव्याधिविध्वंसी भेषज को रसायन कहा है- जराव्याधिविध्वंसी भेषजं तद्रसायनम्' । धम्मरसायणं ग्रन्थरत्न में भी धर्म के उस रसायन का प्रतिपादन किया गया है जो जन्म, जरा तथा मरण के दुःखों का विनाशक तथा इहलोकपरलोक के लिए हितकारी है। अत: इस ग्रन्थ का 'धम्मरसायणं' अभिज्ञान सर्वथा सार्थक है ।
धम्मरसायण में धर्म का स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है(क) जो सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित', जन्म-जरा-मरण के दुःखों का विनाशक तथा इहलोक - परलोक के लिए हितकारी है, वह धर्म है ।
(ख) धर्म त्रिलोक का बन्धु तथा शरणस्थल है- 'धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स ।
(ग) समस्त त्रिलोकी में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो धर्म के द्वारा प्राप्त न हो सकती हो - 'तं णत्थि जं ण लब्भइ धम्मेण कएण तिहुयणे सयले '' |
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अवतारणा
चरक संहिता से उत्तररामचरित (व्याख्याकार-आनन्दस्वरूप), पृ. 178 पर उद्धृत । धम्मं सव्वण्हुपण्णत्तं । धम्मरसायणं, 94
वुहजणमणोहिरामं जाइजरामरणदुक्खणासयरं । इहपरलोयहिजत्थं तं धम्मरसायणं वोच्छं ॥ तदेव, 2
तदेव, 3
तदेव, 6
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