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ग्रन्थकार के द्वारा प्रतिपादित धर्म की अवधारणा से सिद्ध होता है कि धर्म ऐहलौकिक तथा पारलौकिक सर्वविध कल्याण-परम्परा का हेतु है। मुनिप्रवर श्रीपद्मनन्दि की उक्तधर्म-परिभाषा महर्षि कणाद के धर्मलक्षण के काफी समीप है। कणाद ने 'जिससे मनुष्यों के ऐहलौकिक अभ्युदय तथा पारलौकिक निःश्रेयस् की सिद्धि होती है उसे धर्म कहा है'- 'यतोऽभ्युदयनि:श्रेयसिद्धिः स धर्मः'।
श्री पद्मनन्दिने धर्म के माहात्म्य को रेखाङ्कित करते हुए कहा है कि धर्म तीनों लोकों का बन्धु तथा शरणस्थल है। धर्म से ही मनुष्य पूजनीय होता है। धर्म से विशाल कुल तथा उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त होता है और संसार में यश फैलता है।' श्रेष्ठ भवन, यान-वाहन, शयन-आसन, भोजन, वस्त्राभूषण आदि की प्राप्ति भी धर्म से होती है। त्रिलोकी में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो धर्माचरण के द्वारा प्राप्त न हो सकती हो । धर्म से हीन मनुष्य समस्त दु:खों को प्राप्त करता है।'
मुनीन्द्र का मत है कि संसार में अनेक प्रकार के धर्म हैं जो नाम की दृष्टि से तो समान हैं किन्तु गुणों की दृष्टि से विचार किया जाय तो उनमें से कुछ ही धर्म उत्तम हैं। इसलिए धर्म-अधर्म का भेद जानकर ही मनुष्य को धर्म का ग्रहण करना चाहिए। ग्रन्थकार का उपदेश है कि बुद्धिमानों को कुधर्म का परित्याग करके, संसार को पार करने के लिए सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्म को ही ग्रहण करना चाहिये
1. धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स।
धम्मेण पूयणीओ होइ णरो सव्वलोयस्स।
धम्मरसायणं,3 2. धम्मेण कुलं विउलं धम्मेण य दिव्वरूवमारोग्गं।
धम्मेण जए कित्ती धम्मेण होइ सोहगं ॥ तदेव, 4 वरभवणजाणवाहणसयणासणयाणभोयणाणं च। वरजुवइवत्थुभूसणं संपत्ती होइ धम्मेण ॥ तदेव, 5 तं णत्थि जंण लब्भइ धम्मेण कएण तिहुयणे सयले।
जो पुण धम्मदरिदो सो पावइ सव्वदुक्खाइं॥ तदेव,6 5. धम्मा य तहा लोए अणेयभेया हवंति णायव्वा।
णामेण समा सव्वे गुणेण पुण उत्तमा केई॥ तदेव, 11 6. धम्माधम्मविसेसंणाऊण णरेण घेतव्वं ॥ तदेव, 8
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