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________________ धर्मरसायन 38 क्षुधा तृष्णा भयं दोषोरागो मोहश्च चिन्ता व्याधिः। जरामरणंजन्म निद्राखेदः स्वेदो विषादश्च||118|| रतिर्जुम्भा च दर्प एते दोषाः त्रिलोकसत्त्वानाम् । सर्वेषां सामान्याः संसारे परिभ्रमताम् ||119।। भूख, प्यास, भय, दोष, राग, मोह, चिन्ता, व्याधि, जरा (वृद्धावस्था), मृत्यु, जन्म, निद्रा, खेद, स्वेद (पसीना), विषाद, रति, जम्भाई तथा दर्प (घमण्ड)ये दोष तो संसार में परिभ्रमण करने वाले तीनों लोकों के समस्त जीवों में समानरूप सेपाये जाते हैं। एए सव्वे दोसा जस्स ण विजंति छुहतिसाईया । सो होइ परमदेओ णिस्संदेहेण घेतव्यो ।।120॥ एते सर्वे दोषा यस्य न विद्यन्ते क्षुधातृषादिकाः । स भवति परमदेवो निःसन्देहेन गृहीतव्यः ।।120|| अतः जिसमें भूख, प्यास आदि ये सभी दोष (विकार) न पाये जाते हों, उसी को निःसन्देह परमदेव समझना चाहिए। सिंहासणछत्तत्तयदिव्वोधुणिपुप्फविद्विचमराई। भामंडलदुंदुहिओ वरतरु परमेटिचिण्डूत्थं ।।121|| सिंहासनच्छत्रत्रयदिव्यध्वनिपुष्पवृष्टिचामराणि । भामण्डलदुन्दुभीवरतरुःपरमेष्ठिचिहोत्थानि॥121|| सिंहासन, तीन छत्र, दिव्य ध्वनि, पुष्पवृष्टि, चँवर, आभामण्डल, दुन्दुभि तरुवर (अशोक वृक्ष)-ये सभी परमेष्ठी के प्रकटित चिह्न हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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