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धर्मरसायन -
नवयौवनमपि प्राप्तः इच्छितसुखं न प्राप्नोति किमपि। गच्छति यौवनकालः सर्वोऽपि निरर्थकस्तस्य ||84||
नवयौवन को पाकर भी वह कोई भी अभीष्ट सुख (या स्त्रीसुख) प्राप्त नहीं कर पाता है तथा उसकी सम्पूर्ण युवावस्था निरर्थक ही व्यतीत हो जाती है।
धणुबंधविप्पहीनो भिक्खं भमिऊण भुंजए णिच्चं । पुवकयपावयम्मोसुयणो विण यच्छएसोक्खं॥85।। धनबान्धवविप्रहीनो भिक्षां भ्रमित्वा भुङ्क्ते नित्यम्। पूर्वकृतपापकर्मा सुजनोऽपि न ऋच्छति सौख्यम् ।।85||
वह धन तथा बन्धु-बान्धवों से रहित होकर सर्वदा भिक्षाटन करके भोजन करता है। इस प्रकार पूर्व में पाप करने वाला जीवसज्जन होकर भी सुख नहीं पाता है।
पसुमणुविगईए एवं हिंसालियचोरियाइदोसेहिं । बहुदुक्खेहिं वराओ चिरकालं पावए जीवो 186|| पशुमनुष्यगतौ एवं हिंसालीकचौर्यादिदोषैः। बहुदुःखानिवराक:चिरकालं प्राप्नोति जीवः ।।86||
इस प्रकार पशु तथा मनुष्य गति में बेचारा जीव हिंसा, असत्य, चोरी आदि दोषों के कारण दीर्घकाल तक अनेक दुःखों को प्राप्त करता है।
एवं कुमानुसगई सम्मत्ता।
एवं कुमानुषगतिः समाप्ता। इस प्रकार कुमनुष्यगति का वर्णन समाप्त हुआ।
1. स्त्रीसुखं वा
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