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धर्मरसायन
सव्व (ण्डु) वयणवज्जिय बालतवं कुणइ णरो मूढो । सो णर पावेइ उवरि लोए हीणदेवत्तं ॥87||
सर्वज्ञवचनं वर्जयित्वा बालतपं करोति नरो मूढः । स नरः प्राप्नोति ऊर्ध्वलोके हीनदेवत्वम् ||87||
जो मूढ मनुष्य सर्वज्ञ के वचनों को त्यागकर बालतप (अबोधपूर्वक तप) करता है। वह बालतप के फलस्वरूप उर्ध्वलोक (देवगति) में हीनदेवत्व को प्राप्त करता है ।
दट्ठूण अण्णदेवे महिड्डिए दिव्ववण्णमारोगं । होऊण माणभंगो चित्ते उप्पज्जए दुक्खं ॥88॥ .
दृष्ट्वा अन्यदेवेषु महर्धिकेषु दिव्यवर्णमारोग्यम् । भूत्वा मानभङ्गः चित्ते उत्पद्यते दुःखम् ॥88॥
( देवगति में) अन्त्यन्त समृद्धिशाली देवों के दिव्यवर्ण तथा आरोग्य को देखकर उसका घमण्ड चूर-चूर हो जाता है तथा उसके हृदय में दुःख उत्पन्न होता है ।
तिलोयसव्वसरणं धम्मो सव्वण्डुभाविओ विमलो । तइयामएण गहिओ तेण महंतारिओ एहिं ||89||
त्रिलोकसर्वशरणं धर्मः सर्वज्ञभावितो विमलः । तस्यागमेन गृहीतस्तेन महत्तारकः एवम् ||89||
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तब उसके हृदय में तीनों लोकों के शरणस्थानरूप, सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट निर्मल धर्म का आगमन होता है और वह उस महान् उद्धारक धर्म को ग्रहण करता है।
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