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________________ 11 तत्रापि पर्वतशिखरे नानाविधशावकाः परमभीमाः । तीक्ष्णनखकुटिलदाढाः खादन्ति शरीरं तस्य ॥34॥ धर्मरसायन वहाँ पर्वतशिखर पर भी अत्यन्त भयानक तथा पैने नाखून और दाढ़ वाले तरह-तरह के वन्यपशु (शावक) उसके शरीर को खा डालते हैं । । तेसिं भरण पुणो धावंतो उत्तरेइ भूमीए । गच्छड़ वेयरणीए तिहाए पीडिओ संतो ॥35॥ तेषां भयेन पुनः धावन् उत्तरति भूमौ । गच्छति वैतरण्यां तृष्णया पीडितः सन् ||35|| उन वन्यपशुओं के भय से पुनः दौड़ता हुआ वह (पर्वतशिखर से) भूमि पर उतरता है और प्यास से व्याकुल होकर वैतरणी नदी में जाता है। सुक्को विजिज्झकंठो तत्थ जलं गेण्हिऊण पिबमाणो । उण ते डज्झइ हत्थम्मि मुहम्मि ओठम्मि ॥36॥ शुष्कः विध्यकण्ठः तत्र जलं गृहीत्वा पिबन् । उष्णेन तेन दह्यते हस्तयोः मुखे ओष्ठे ||36|| सूखे तथा बिंधे (घायल या चटकते हुए गले वाला वह ज्यों ही जल को ग्रहण करके पीने लगता है, त्योंही वैतरणी के उस गर्म जल से उसके हाथ, मुख और ओष्ठ जलने लगते हैं । भुक्खाए संतत्तो अलहंतो किंच्चि अण्णमाहारं । वेयरणीए कूले गिहिव्वा महियं खाइ ॥37॥ बुभुक्षया संतप्तः अलभमानः किञ्चिदन्नमाहारम् । वैतरण्याः कूले गृहीत्वा मृत्तिकां खादति ॥37॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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