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________________ धर्मरसायन तत्थ वि पडंति उवरिं फलाई जट्टाई असहणिज्जाई । लग्गंति जत्थ गत्ते सइ चुण्णं तत्थ कुव्वंति ॥31॥ तत्रापि पतन्ति उपरि फलानि जटानि असहनीयानि । लगति यत्र गात्रे सकृच्चूर्णं तत्र कुर्वन्ति ||3||l वहाँ उस असिपत्रवन में भी उसके ऊपर असहनीय फल तथा जटायें गिरती हैं जो उसके शरीर पर लगती हैं तथा तुरन्त उसका चूर्ण बना देती हैं। पत्ताइं पडंति तहा खंडयधारत्व सुठु तिक्खाई। ताई वि छिंदंति पुणो अंगोवंगाई सव्वाई ॥32॥ पत्राणि पतन्ति तथा खङ्गधारावत् सुष्ठुतीक्ष्णानि । तान्यति छिन्दन्ति पुनः अङ्गोपाङ्गानि सर्वाणि ॥32॥ उसी प्रकार वहाँ तलवार के समान अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाले पत्ते गिरते हैं । वे भी उसके समस्त अंग-प्रत्यंगों को छेद डालते हैं । णीसरिडं सो तत्थ वि असहंतो एरिसाइं दुक्खाई । वेण धावमाणो पव्वयसिहरं समारुहइ ॥33॥ निःसृत्य स ततोऽपि असहमान एतादृशानि दुःखानि । वेगेन धावन् पर्वतशिखरं समारोहति ॥33॥ 10 इस प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ होकर वह वहाँ (असिपत्रवन) . से भी निकलकर तेजी से दौड़ता हुआ पर्वतशिखर पर चढ़ जाता है। तत्थ वि पव्वयसिहरे णाणाविहसावया परमभीमा । तिक्खणहकुडिलदाढा खादंति सरीरयं तस्स ॥34॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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