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________________ 80 एवं सुमन्त्रवचसा दर्पो ऽपसर्पणमगात्स्विदनन्यगत्या हस्तं भुवि Jain Education International वयमुञ्चदति यद्वोदयाद्बहु सुदर्शनपुणयतत्याः ॥२०॥ सुदर्शन सेठ के इस प्रकार के सुमंत्र रूप वचन से संसार में विषयरूप विषधर भोगों (सर्पो) को ही भला मानने वाली उस भोगवती कपिलारूपणी सर्पिणी का विषरूप दर्प एक दम दूर हो गया और अन्य कोई उपाय न देखकर मन्दमति ने सुदर्शन का हाथ छोड़ दिया। अथवा यह कहना चाहिए कि सुदर्शन की पुण्य परम्परा के उदय से कपिला ने उसका हाथ छोड़ दिया । ( और सुदर्शन तत्काल अपने घर को चला दिया ||२०|| मन्दतयाऽपि भोगवत्या For Private & Personal Use Only I मत्या श्री मान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्न यं वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तेन प्रोक्तसुदर्शनोदय इयान् सर्गो गतः पञ्चमो विप्राण्या कृतवञ्चनाविजयवाक् श्री श्रेष्ठिनः सत्तमः "I इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, बालब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर विरचित इस सुदर्शनोदय काव्य में कपिला ब्राह्मणी के द्वारा किये गये छलकपट का वर्णन करने वाला पंचवां सर्ग समाप्त हुआ । www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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