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________________ अथ षष्ठः सर्गः सारङ्गनामरागः ॥१॥ स वसन्त आगतो हे सन्तः, स वसन्तः ॥ स्थायी । परपुष्टा विप्रवराः सन्तः सन्ति सपदि सूक्तमुदन्तः लताजातिरुपयाति प्रसरं कौतुक सान्मधुरवरं तत् ॥२॥ लसति सुमनसामेष समूहः किमुत न सखि विस्फुरदन्तः ॥३॥ भूरानन्दमयीयं सकला प्रचरित शान्तेः प्रभवं तत् ॥४॥ हे सज्जनों, आज वह वसन्त ऋतु आ गई है, जो कि सब जीवों का मन मोहित करती है, इस समय वि अर्थात् विहगों (पक्षियों) में प्रवर (सर्वश्रेष्ठ ) पर पुष्ट (काक से पोषित) कोकिल पक्षी अपनी 'कुहू कुहू' इस प्रकार की उत्तम बोली को बोलते हुए जैसे सर्व ओर द्दष्टिगोचर हो रहे हैं, उसी प्रकार पर पुष्ट (क्षत्रियादि द्वारा दिये गये दान से पुष्ट होने वाले) विप्र-वर ( श्रेष्ठ ब्राह्मण) भी चारों ओर उत्तम वेद- सूक्त गायन करते हुए दिखाई दे रहे हैं। आज कुन्द, चम्पा, चमेली आदि अनेक जाति की लताएँ सुन्दर मधुर पुष्पों को धारण कर सर्व ओर फैलती हुई जैसे वसन्त उत्सव मना रही हैं, वैसे ही मनुष्यों की अनेक जातियां भी अपनी-अपनी उन्नति के मधुर कौतुक से परिपूर्ण होकर सर्व ओर प्रसार को प्राप्त हो रही हैं। आज जैसे भीतर से विकसित सुमनों (पुष्पों) का समूह चारों ओर दिख रहा है, वैसे ही अन्तरंग में सबका भला चाहने वाले सुमनसों (उत्तम मनवाले पुरुषों) का समुदाय भी सर्व ओर हे मित्र, क्या दिखाई नहीं दे रहा है ? अपितु दिखाई दे ही रहा है। आज शान्ति के देने वाले अहिंसामय धर्म का प्रचार करती हुई यह समस्त वसुधा आनन्दमयी हो रही है ॥१-४॥ स वसन्तः स्वीक्रियतां सन्तः सवसन्तः ॥स्थायी ॥ सहजा स्फुरति यतः सुमनस्ता जड़ तायाश्च भवत्यन्तः ॥१॥ वसनेभ्यश्च तिलाञ्जलिमुक्त्वाऽऽह्नयति तु दैगम्बर्यन्तत् ॥२॥ सहकारतरोः सहसा गन्धः प्रसरति किन्नहि जगदन्तः ॥३॥ परमारामे पिकरवश्रिया भूरानन्दस्य भवन्तः ॥४॥ हे सज्जनो, इस आये हुए वसन्त का स्वागत करो, जिसमें कि जाड़े समान जड़ता (मूर्खता) का अन्त हो जाता है और सुमनों (पुष्पों) की सुमनस्ता (विकास वृत्ति) के समान उत्तम हृदयवाले पुरुषों के सहृदयता सहज में ही प्रकट होती है। इस ऋतु में शीत न रहने से शरीर पर पहिने हुए वस्त्रों को तिलाञ्जलि देकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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