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________________ लोग दिगम्बरता का आह्वानन करते हैं। इस समय जैसे सहकार (आम्र) वृक्ष की मञ्जलु मौलि-सुगन्धि सर्व ओर फैल रही है, उसी प्रकार सारे जगत के भीतर सहकारिता (सहयोग) की भावना भी क्या नहीं फैल रही है ? अर्थात् आज सब लोग परस्पर सहयोग करने का विचार करने लगे हैं। आज जैसे उत्तम उद्यानों में कोकिलों की कूक से समस्त भूमण्डल आनन्दमय हो रहा है, उसी प्रकार आप लोग भी इस वसन्त काल में परम आत्माराम की अनुभूति-द्वारा आनन्द के भाजन बनो ॥१-४॥ अहो विद्यालता सजनैः सम्मता ॥स्थायी॥ कौतुकपरिपूर्णतया याऽसौ षट् पदमतगुज्जाभिमता ॥१॥ चतर्दशात्मतया विस्तरिणी यस्यां मृदुतमपल्लवता ॥२॥ समुदित नेत्रवतीति प्रभवति गुरुपादपसद्भावधृता ॥३॥ भूराख्याता फलवत्ताया विलसति सद्विनयाभिसूता ॥४॥ . अहो, यह परम हर्ष की बात है कि विद्वानों ने विद्या को लता के समान स्वीकार किया है। जैसे लता अनेक कौतुकों (पुष्पों) से परिपूर्ण रहती है, उसी प्रकार विद्या भी अनेक प्रकार के कौतूहलों से भरी होती है । जैसे लता षटपदों (भ्रमरों) से गुञ्जायमान रहती है, उसी प्रकार यह विद्या भी षड्दर्शनरूप मत-मतान्तरों से गुञ्जित रहती है। जैसे लता चारों दिशाओं में विस्तार को प्राप्त होती है अर्थात् सर्व ओर फैलती है, उसी प्रकार यह विद्या भी चौदह भेदरूप से विस्तार को प्राप्त है । जैसे लता अत्यन्त . मृदुल पल्लवों को धारण करती है, उसी प्रकार यह विद्या भी अत्यन्त कोमल सरस पदों को धारण करती है । जैसे लता एक समूह को प्राप्त नेत्र (जड़) वाली होती है और किसी गुरु (विशाल) पादप (वृक्ष) की सद्भावना को पाकर उससे लिपटी रहती है, उसी प्रकार विद्या भी प्रमुदित नेत्र वाले पुरुषों से ही पढ़ी जाती है और गुरु-चरणों के प्रसाद से प्राप्त होती है । जैसे लता उत्तम फल वाली होती हैं, उसी प्रकार विद्या भी उत्तम मनोवांछित फलों को देती है। तथा जैसे लता उत्तम पक्षियों से सेवित रहती है, उसी प्रकार यह विद्या भी उत्तम विनयशाली शिष्यों से सेवित रहती है ॥१-४॥ श्रुतारामे तु तारा मेऽप्यतितरा मेतु सप्रीति स्थायी। मृदुलपरिणामभृच्छायस्तरुस्तत्त्वार्थनामा . यः। समन्तादाप्तशाखाय प्रस्तुताऽस्मै सदा स्फीतिः ॥स्थायी॥१॥ ललिततमपल्लवप्राया विचाराधीनसत्काया । अतुलकौतुकवती वा या वृततिरकलङ्कसदधीतिः स्थायी ॥२॥ सुमनसामाश्रयातिशयस्तम्बको जैनसेनन यः । . दिगन्तव्याप्तकीर्तिमयः प्रथितषट् चरणसङ्गीतिः ॥स्थायी॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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