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________________ 83 - - - - - - -- शिवायन इत्यतः ख्याता चरणपानामहो माता • । समन्ताद्भद्रविख्याता श्रियो भूराप्तपथरीतिः ॥स्थायी॥४॥ उस शास्त्र रुप उद्यान में सदा प्रेम-पूर्वक मेरी दृष्टि संलग्न रहे, जिस उद्यान में तत्त्वार्थ सूत्र जैसे नाम वाले उत्तम वृक्ष विद्यमान हैं, जिसकी मृदुल सुख-कारी छाया है और जिसकी अनेकों शाखाएं चारों ओर फैल रही हैं, उसके अधिगम के लिए मेरा मन सदा उत्सुक रहता है। जिस तत्वार्थ सूत्र पर अत्यन्त ललित पद-वाली श्रीपूज्यपादस्वामि-रचित सर्वार्थसिद्धि करी वृत्ति है और जिसे अत्यन्त मनन--विचार पूर्वक आत्मसात् करके अतुल कौतुक (चमत्कार) वाली महावृत्ति (राजवार्तिक) श्रीअकलङ्कदेव ने रची है जो कि निर्दोष बुद्धिवाले विद्वानों के द्वारा ही अध्ययन करने के योग्य है। जैसे एक महान् वृक्ष अनेकों पुष्पमयी लताओं और पक्षियों से व्याप्त रहता है, उसी प्रकार यह महाशास्त्र भी अनेकों टीकाओं और अध्ययनकर्ताओं से व्याप्त रहता है । जिस श्रुतउद्यान में श्रीजिनसेनाचार्य से रचित महापुराण रूप महापादप भी विद्यामान है, जोकि दिगन्त व्याप्त कीर्तिमय है । उत्तम सुमनों के गुच्छों का आश्रयभूत है, विद्वज्जनरूप भ्रमरों से सेवित है और असि, मषि आदि षट् कर्म करने वाले गृहस्थों का जिसमें आचार विचार विस्तार से वर्णित है. उस श्रुतस्कन्धरूप उद्यान में सर्वज्ञ-प्रतिपादित, सर्वकल्याणकारी शिव-मार्ग की समन्तभद्राचार्य प्रणीत सूक्तियां विद्यमान हैं और. शिवायन-आचार्य- रचित संयम-धारियों के लिए भगवती माता के समान परम हितकारी भगवती आराधना शिव-मार्ग को दिखा रही है, उस शास्त्र रुप उद्यान में मेरी दृष्टि सदा संलग्न रहे ॥१-४॥ रामाजन इवाऽऽरामः सालसङ्गममादधत्। प्रीतयेऽभूच्च लोकानां दीर्घनेत्रधृताञ्जनः ॥१॥ उस वसन्त ऋतु में उद्यान स्त्रीजनों के समान लोगों की प्रीति के लिए ही रहा था। जैसे स्त्रियां आलस-युक्त हो मन्द-गमन करती हैं, उसी प्रकार वह उद्यान भी सालजाति के वृक्षों के संगम को धारण कर रहा था। और जैसे स्त्रियां अपने विशाल नयनों में अंजन (काजल) लगाती हैं, उसी प्रकार लम्बी जड़ों वाले अंजन जाति के वृक्षों को वह उद्यान धारण कर रहा था ॥१॥ स्वयं कौतुकितस्वान्तं कान्तमामेनिरे ऽङ्गनाः । पुन्नागोचितसंस्थानं मदनोदारचेष्विटतम् ॥२॥ उस उद्यान को स्त्रियों ने भी अपने कान्त (पति) के समान समझा। जैसे पति स्वयं कौतुकयुक्त चित्तवाला होता है, वैसे ही वह उद्यान भी नाना प्रकार के कौतुकों (पुष्पों) से व्याप्त था । जैसे पति एक श्रेष्ठ पुरुष के संस्थान (आकार-प्रकार) को धारण करता है, वैसी ही वह उद्यान भी पुन्नाग (नागकेशर) जाति के उत्तम वृक्षों के संस्थान से युक्त था । तथा जैसे पति मदन (काम) की उदार चेष्टाओं को करता है, उसी प्रकार वह उद्यान भी मदन जाति के मैन फल आम आदि जातियों के वृक्षों की उदार चेष्टाओं से संयुक्त था ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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