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........ 84 ------ भावार्थ - इस प्रकार वसन्त ऋतु में नगर के उद्यानों ने स्त्री और पुरुष दोनों को ही आकर्षित किया और सभी नगर-निवसी स्त्री-पुरुष तन-विहार करने के लिए उद्यान में पहुंचे ।
कान्तारसद्विहारेऽस्मिन् समुदीक्ष्य मनोरमाम् । स्तनन्धयान्वितामत्र कपिलाऽऽहावनीस्वरीम् ॥३॥ के यं के नान्विताऽनेन मौक्तिकेनेव शुक्तिका । जगद्विभूषणेनाऽस्ति स्वरूपातपूततां गता ॥४॥ (युग्मम्) उस वन विहार के समय पुत्र के साथ जाती हुई मनोरमा को देखकर कपिला ने राजा धरणी भूषण की रानी अभयमती से पूछा - हे महारानी, अपने सौन्दर्यशाली स्वरूप से पवित्रता को प्राप्त यह स्त्री कौन है और जगत् को विभूषित करने वाले मोती से जैसे सीप शोभित होती है, उसी प्रकार यह किसके जगद्विभूषण पुत्र से संयुक्त होकर शोभित हो रही है ॥३-४॥
अस्ति सुदर्शनतरुणाऽभ्यूढे यं सुखलताऽयमथ च पुनः । कौतुक भूमिरमुष्या नयनानन्दाय विलसतु नः ॥५॥
रानीने कहा - दर्शनीय उत्तम वृक्ष से आलिंगित सुन्दर लता के समान यह नवयुवक राज-सेठ सुदर्शन से विवाहित सुखदायिनी सौभायवती मनोरमा सेठानी है और यह कौतुक (हर्ष) का उत्पादक उसका पुत्र हैं जो कि हम लोगों के नयनों के लिए भी आनन्द-दायक हो रहा है ॥५॥
प्रत्युक्तया शनैरास्यं सनैराश्यमुदीरितम् । नपुंसक स्वभावस्य स्वभाऽवश्यमियं नु किम् ॥६॥
इस प्रकार रानी के द्वारा कहे जाने पर उस कपिला ने निराशा-पूर्वक धीमे स्वर से कहा - क्या नपुंसक स्वभाव वाले उस सुदर्शन का यह लड़का होना संभव है ॥६॥
निशम्येत्यगदद्राज्ञी सगदेव हि भाषसे ।
समुन्मत्ते कि मेतावत् समुन्मान्तेद्दशीहि न ॥७।।
कपिला के ऐसे वचन सुनकर रानी बोली - हे समुन्मत्ते, (पगली) तू रोगिणी-सी यह क्या कह रही है? क्या तेरी दृष्टि में वह सुदर्शन पुरुष (पुरुषार्थ-युक्त) नहीं हैं ॥७॥
श्रुतमश्रुतपूर्वमिदं तु कुतः कपिले त्वया स वैक्लैव्ययुतः । पुरुषोत्तमस्य हि न मानवता के नानुनीयतां मानवता ॥८॥ हे कपिले, वह सुदर्शन सेठ नपुंसक है, यह अश्रुतपूर्व बात तूने कहां से सुनी ? उन जैसे उत्तम पुरुष के पौरुषता कौन मनस्वी पुरुष नहीं मानेगा? अर्थात् कोई भी उन्हें नसक नहीं मान सकता ॥८॥
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