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इत्यतः प्रत्युवाचापि विप्राणी प्राणितार्थिनी । भवत्यस्ति महाराज्ञी यत्किञ्चिद्वक्तुमर्ह ति ॥९॥ हे ऽवनीश्वरि सम्वच्मि सम्वच्मीति न नेति सः ।। सम्प्रार्थितः स्वयं प्राह मयैकाकी किलैकदा ॥१०॥ (युग्मम् )
यह सुनकर वह कपिला ब्राह्मणी बोली - आप महारानी हैं, अत: आप जो कुछ भी कह सकती हैं। किन्तु मैं भी तो विचार-शीला हूँ । हे पृथ्वीश्वरि, मैं जो कह रही हूँ, वह एक दम सत्य है । मैंने एक बार एकान्त में उससे अकेले ही काम सेवन की प्रार्थना की थी, तब उसने स्वयं ही कहा था कि मैं 'पुरुष' नहीं हूं । अर्थात् नपुंसक हूं, अतः तेरी प्रार्थना स्वीकार करने में असमर्थ हूं ॥९-१०॥
राज्ञी प्राह किलाभागिन्यसि त्वं तु नगेष्वसौ ।
पुन्नाग एव भो मुग्धे दुग्धेषु भुवि गव्यवत् ॥११॥
कपिला की बात सुनकर रानी बोली, कपिले, तू तो अभागिनी है। अरे वह सुदर्शन तो सब पुरुषों में श्रेष्ठ पुरुष है, जैसे कि सब वृक्षों में पुन्नाग का वृक्ष सर्व श्रेष्ठ होता है और दुग्धों में गाय का दूध सर्वोत्तम होता है ॥११॥
अहो सुशाखिना तेन कापि मञ्जुलताऽञ्चिता। भवि वर्णाधिकत्वेन कपिले त्वञ्च वञ्चिता ॥१२॥
अरी कपिले, उस उत्तम भुजाओं के धारक सुदर्शन ने उच्च वर्ण की होने से तुझे ठग लिया है, जैसे कि उत्तम शाखाओं वाला कोई सुन्दर वृक्ष किसी सुन्दर लता को ढक लेता है ॥१२॥
असा हसेन तत्रापि साहसेन तदाऽवदत् । विप्राणी प्राणिताप्त्वा को न मुह्यति भूतले ॥१३॥
रानी की बात सुनकर लज्जित हुई भी वह ब्राह्मणी फिर भी साहस करके धृष्टतापूर्वक बोली - इसमें क्या बात है? संसार में ऐसा कौन है जो कि भूलता न हो ॥१३॥
आस्तां मद्विषये देवि श्रीमतीति भवत्यपि। सुदर्शनभुजाश्लिष्टा यदा किल धरातले ॥१४॥
किन्तु देवी जी, मेरे विषय मैं तो रहने देंवे, आप तो श्रीमती हैं, आपका श्रीमतीपना भी मैं तभी सार्थक समशृंगी, जबकि आप भूतल पर अपने सौन्दर्य में प्रसिद्ध इस सुदर्शन की भुजाओं से आलिंगित हो सकें ॥१४॥
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