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..... 86 . मधुरेण समं तेन सङ्ग मात्कौतुकं न . चेत् । युवत्या यौवनारामः फलवत्तां कुतो व्रजेत् ॥१५॥
वसन्त के समान मधुर उस महाभाग के साथ संगम से जिसे आनन्द प्राप्त न हो, उस युवती स्त्री का यौवनरुप उद्यान सफलता को कैसे प्राप्त कर सकता है? अर्थात् जैसे वसन्त के समागम बिना बाग बगीचे फल-फूल नहीं सकते, उसी प्रकार सुदर्शन के समागम के बिना नवयुवती का यौवन भी सफल नहीं समझना चाहिए ॥१५॥
एवं रसनया राज्याश्चित्ते रसनयात्तया । सुदर्शनान्वयायाङ्का स्थापिता कपिलाख्यया ॥१६।। इस प्रकार की रस भरी वाणी से उस कपिला ब्राह्मणी ने रानी के चित्त में सुदर्शन के साथ समागम करने की इच्छा अच्छी तरह से अंकित कर दी ॥१६॥
विश्वं सुदर्शनमयं विबभूव तस्या रुच्या न जातु तमृते सकला समस्या । सत्पुष्पतल्पमपि
वह्निकणोपजल्पं यन्मोदक ज्ज भुवि सोदक मुग्रकल्पम् . ॥१७॥
इसके पश्चात् उस रानी को यह सारा विश्व ही सुदर्शन मय दिखाई देने लगा, उसके बिना अब कोई भी वस्तु उसे रूचिकर नहीं लगती थी, उत्तम उत्तम कोमल पुष्पों से सजी सेज भी उसे अग्निकणों से व्याप्त सी प्रतीत होती थी और मिष्ट मोदक तथा शीतल जल भी विष के समान लगने लगे ॥१७॥ निर्वारिमीनमितमिङ्गितमभ्युपेता प्रालेयकल्पधृतवीरुधिवाल्पचेताः । चन्द्रं विनेव भुवि कैरविणी तथेतः पृष्ठा समाह निजचेटिकयेत्थमेतत् ॥१८॥
जल के बिना तड़फड़ाती हुई मछली के समान व्याकुलित चित्तवाली, तुषार-पात से मुरझायी हुई लता के समान अवसन्न (शून्य) देहवाली और चन्द्रमा के बिना कमोदिनी के समान म्लान मुखवाली रानी को देखकर उसकी दासी ने रानी से पूछा -स्वामिनी जी, क्या कष्ट है? रानी बोली.... ॥१८॥
उद्यानयानजं वृत्तं किन्न स्मरसि पण्डिते ।
अहन्तु सस्मरा तस्मिन् विषये स्फीतिमण्डिते ॥१९॥ हे पण्डिते, वन-विहार को जाते समय कपिला के साथ जो बात चीत हुई थी, वह तुझे क्या याद नहीं है? मैं तो उसी आनन्द-मण्डित रोचक विषय को तभी से याद कर रही हूं, अर्थात् सुदर्शन के स्मरण से मैं कानात हो रही हूं ॥१९।।
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