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.. 87 1.. पण्डिताऽऽह किलेनस्य प्रियाऽसि त्वं प्रतापिनः । कुतः श्वेतांशुकायाऽपि भूयाः देवि कुमुद्वती ॥२०॥
रानी की बात सुनकर वह चतुर दासी बोली-हे देवि, तुम सूर्य जैसे प्रतापशाली राजा की कमलिनी जैसी प्रिया होकर के भी श्वेत-किरण वाले चन्द्रमा के समान श्वेत वस्त्रधारी उस सुदर्शन की कमोदिनी बनना चाहती हो? अर्थात् यह कार्य तुम्हारे लिए उसी तरह अयोग्य है, जैसे कि कमलिनी का कमोदिनी बनना। तुम राजरानी होकर वणिक्-पत्नी बनना चाहती हो, यह बहुत अनुचित बात है ॥२०॥
मनोरमाधिपत्वेन ख्याताय तरुणाय ते। मनोऽरमाधिपत्वेन ख्याताय तरुणायते ॥२१॥
रानी जी, मनोरमा के पति रूप से प्रसिद्ध उस तरुण सुदर्शन के लिए तुम्हारा मन इतना व्यग्र हो रहा है और उस अकिञ्चित्कर को लक्ष्मी का अधिपति बनाने के लिए तरुणाई (जवानी) धारण कर रहा है, सो यह सर्वथा अयोग्य है ॥२१॥
सोमे सुदर्शने काऽऽस्था समुदासीनतामये।
अमाभिधानेऽन्यत्राहो समुदासीनतामये ॥२२॥
यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि वह सौम्य है, सुदर्शन (देखने में सुन्दर) है, किन्तु जब अपनी स्त्री के सिवाय अन्य सब स्त्रियों में उदासीनतामय है, उन्हें देखना भी नहीं चाहता, जैसे कि चन्द्रमा अमावस्या की रात्रि को ओर तब ऐसे उदासीनतामयी व्यक्ति की ओर हे रानी जी, हमारा भी क्यों ध्यान जाना चाहिये ? ॥२२॥
विरम विरम भो स्वामिनि त्वं महितापि जनेन । किमिति गदसि लज्जाऽऽस्पदं किं ग्लपिताऽसि मदेन ॥२३॥
इसलिए हे स्वामिनि, ऐसे घृणित विचार को छोड़ो, छोड़ो । आप जैसी महामान्य महारानी के मुख द्वारा ऐसी लज्जास्पद बात कैसे कही जा रही है? क्या आप मदिरा पान से बेहोश हो रही हैं? ॥२३॥
निजपतिरस्तु तरां सति ! रम्यः कुलबालानां किन्नु परेण ।स्थायी॥ सकलङ्कः पृषदङ्ककः स क्षयसहितः सहजेन । कु मुद्वती सा मुद्वती भो प्रभवति न बिना तेन ॥स्था.१॥ स न दृश्यः सन्तापकृद् भो द्वादशात्मकत्वेन । कथितः पति विदुषां पुनः खलु विकसति नलिनी तेन ॥स्था.२॥
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