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________________ --- -------------- वनविचरणतो दुःखिनी किल सीता सती नु तेन । किं पतिता व्रततो धृताऽपि तु लङ्कापतिना तेन ॥स्थायी ॥३॥ यातु सा तु सञ्जीविता भुवि सत्या अलमपरेण । भूरागस्य परेण सह सा स्वप्नेऽप्यस्तु न तेन ॥स्थायी ॥४॥ हे सति, कुलीन नारियों के तो निज पति ही सर्वस्व होता है, उन्हें पर पुरुष से क्या प्रयोजन है? देखो- यह चन्द्रमा कलङ्क सहित है, शशक को अपनी गोद में बैठाये हुए है और स्वभाव से ही क्षय रोग-युक्त है, तो भी यह कमोदिनी उसे ही देखकर प्रमोद पाती है और उसके बिना प्रमोद नहीं पाती, प्रत्युत म्लान-मुखी बनी रहती है। और देखो-यह सूर्य, जिसे कोई देख नहीं सकता, सबको संतापित करता है और जिसे विद्वानों ने द्वादशात्मक रुप से वर्णन किया है अर्थात् जो बारह प्रकार के रूपों को धारण करता है, कभी एक रूप नहीं रहता । फिर भी कमलिनी उससे ही विकसित होती है, अर्थात् सूर्य से ही प्रसन्न रहती है। और देखो- वह सीता सती वन में राम के साथ विचरने से दुःखिनी थी, फिर भी क्या लंकापति रावण के द्वारा हरी जाने और नाना प्रकार के प्रलोभन दिये जाने पर भी अपने पातिव्रत्य धर्म से पतित हुई ? सती शीलवती स्त्री का जीवन जाय तो जाय पर वह अपने पातिव्रत्यधर्म से पतित नहीं होती है। इसलिए अधिक कहने से क्या, पतिव्रता स्त्री को तो स्वप्न में भी पर पुरुष के साथ अनुराग नहीं करना चाहिए ॥१-४॥ एवं प्रस्फुटमुक्ताऽपि गुणयुक्ता वचस्ततिः । हृदये न पदं लेभे राइयाः सेत्यवदत्पुनः ॥२४॥ इस प्रकार दासी के द्वारा स्पष्ट रूप से कही गई गुण युक्त वचनों की मुक्तामाला ने भी उस रानी के हृदय में स्थान नहीं पाया और कामान्ध हुई उसने पुनः कहना प्रारम्भ किया ॥२४॥ प्रभवति कथा परेण पथा रे युवते रते मयाऽधीतारे स्थायी॥ पतिरिति परदेशं यदि याति, पतितत्वादियुतो वा भाति, कुसुमं सम्प्रति महिला लाति साञ्चेत् कमपि स्मृतिकथना रे ॥१॥ बाला द्रुपदभूपतेर्यापि, गदिता पञ्चभर्तृका सापि, पातिवत्यं किन्न तयापि, किल सत्यापि पुरातनकाले ॥२॥ जनक सुतादिक वृत्तवचस्तु जनरञ्जनक त्के वलमस्तु न तु पुनरे कान्ततया वस्तुमेणाक्षीणां मनस्युदारे ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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