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________________ | 89 --------- भूराज्ञः किमभूदेकस्य, यद्वा सा प्रवरस्य नरस्य । तद्वन्महिलामपि सम्पश्य, यत्नः कर्तव्योऽस्त्यधिकारे ॥४॥ अरी पण्डिते, तूने मनुस्मति को नहीं पढ़ा है? उसमें कहा है - "यदि पति परदेश गया हो, अथवा जाति-पतित हो, या नपुंसकत्व आदि शारीरिक दोष से युक्त हो और स्त्री मासिक धर्म को धारण कर रही हो (ऋतुमती हो) और उसका पति समय पर उपस्थित न हो, तो वह अपनी इच्छानुसार किसी भी पुरुष को स्वीकार कर सकती है।" इस प्रकार स्मृति शास्त्र में युवती को रति के विषय में और ही मार्गवाली कथा मैंने पढ़ी है और सुन, पूर्वकाल में द्रुपद राजा की बाला द्रौपदी पंच भर्तारवाली (महाभारत में) कही गई है, फिर भी क्या वह सती नहीं थी और क्या उसने पातिव्रत्यपद नहीं पाया? हां जनकसुता सीता आदि का वृतान्त तो आदर्श होते हुए भी केवल जन-मन-रंजन करने वाला है, किन्तु वह एकान्त रुप से मृगनयनी स्त्रियों के उदार मन में स्थान पाने के योग्य नहीं है। अरी पण्डिते, यह पृथ्वी भी तो एक स्त्री ही है, वह क्या कभी एक ही पुरुष की बनकर रही है? वह भी प्रबल शक्तिशाली पुरुष की ही भोग्या बनकर रहती है। इसी प्रकार स्त्री को भी देख, अर्थात् उसे भी किसी एक की ही बनकर नहीं रहना चाहिए, किन्तु सदा बलवान् पुरुष की भोग्या बनना चाहिए। इसलिए अब अधिक देर मत कर और अपने अधिकृत कार्य में प्रयत्न कर ॥१-४॥ कटु मत्वेत्युदवमत्सा रुग्णाऽतोऽमृतं च तत् । पथ्यं पुनरिदं दातुं प्रचक्रामाऽनुचारिणी ॥२५॥ काम-रोग से ग्रसित उस रानी ने दासी के द्वारा कहे गये वचन रूप अमृत को भी कटुक विष मानकर उगल दिया। फिर भी आज्ञाकारिणी उस दासी ने यह आगे कहा जाने वाला सुभाषितरूप पथ्य प्रदान करने के लिए प्रयत्न किया ॥२५॥ 4 + दैशिकसौराष्ट्रीयो राग: FE न हि परतल्पमेति स ना तु ॥ स्थायी ॥ किन्नु भूरागस्य भूयाद् बुधो विपदे जातु, क्षणिक नर्मणि निजयशोमणिमसुलभं च जहातु । न हि परतल्पमेति स ना तु ॥१॥ भोजने भुक्तोज्झिते भुवि भो जनेश्वरि, भातु, रुक्करोऽपि स कुक्करो न हि परो दशमपि यातु। न हि परतल्पमेति स ना तु ॥२॥ 2008 88 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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