SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ______ 90 - - - - --- -- -- - --- छन्नमित्यविपन्नसमया खलु कुकर्मकथा तु, पायुवायुरिवायुरात्वा प्रसरमाशु च लातु । न हि परतल्पमेति स ना तु ॥३॥ मोदकं सगरोदकं सखि कोऽत्र निजमत्याऽत्तु, दण्डभूराजादिकेभ्यो द्रुतमुत प्रतिभातु। न हि परतल्पमेति स ना तु ॥४॥ - रानी का आदेश सुनकर वह दासी फिर भी बोली - महारानी जी, वह महापुरुष भूल करके भी पर स्त्री के पास नहीं जाता है । वह विद्वान ऐसा अनुचित राग करके विपत्ति में क्यों पड़ेगा और क्यों अति दुर्लभता से प्राप्त अपने यशरुप मणि को इस क्षणिक विनोद में खोएगा? हे जनेश्वरि, इस भूतल पर खाकर दूसरे के द्वारा छोड़े हुए जूठे भोजन को खाने के लिए कोई कुत्ता भले ही रुचि करे, किन्तु कोई भला मनुष्य तो उसकी ओर अपनी द्दष्टि भी नहीं डालता है। वैसे ही पर-भुक्त कलत्र की ओर वह महापुरूष भी द्दष्टि-पात नहीं करता है। कुकर्मी लोग विपत्ति के भय से कुकर्म को अति सावधानी के साथ गुप्त रुप से करते है, कि वह प्रकट न हो जाय। किन्तु वह कुकर्म तो समय पाकर अपानवायु के समान शीघ्र ही प्रसार को प्राप्त हो जाता है। इसलिए वह पुरुषोत्तम पर-नारी के पास भूल करके भी नहीं जाता है। हे सखि, इस संसार में विष सहित जल से बने मोदक को कौन ऐसा पुरुष है, जो जान-बूझकर खा लेवे । पर-दारा-सेवन से मनुष्य यहीं पर राजादि से शीघ्र दण्ड का पात्र होता है, फिर वह समझदार होकर कैसे राज-रानी के पास आयेगा ? अर्थात् कभी नहीं आयेगा। इसलिए महारानीजी, अपना यह दुर्विचार छोड़ो ॥१-४॥ उचितामुक्ति मप्याप्त्वा पण्डिताया नृपाङ्गना तामाह पुनरप्येवं कामातुरतयार्थिनी ॥२६॥ उस विदुषी दासी की ऐसी उचित बात को सुनकर भी रानी को प्रबोध प्राप्त नहीं हुआ और अत्यन्त कामान्ध होकर काम-प्रार्थना करती हुई वह राज-रानी फिर भी उससे बोली ॥२६॥ पण्डिते किं गदस्येवं गदस्येव समीक्षणात् । त्वदुक्तस्य भयोऽस्माकं प्रेत्युतोदेति चेतसि ॥२७॥ हे पण्डिते, तू ऐसी अनर्गल बात क्यों कहती है ? मैं तो पहले से ही काम-रोग से पीड़ित हो रही हूं और तेरे कहने से तो मेरे मन में और भी दुःख बढ़ता है, जैसे कि किसी रोग से पीड़ित मनुष्य का दुःख नये रोग के हो जाने से और भी अधिक बढ़ जाता है ॥२७॥ कौमुदं तु परं तस्मिन् कलावति कलावति । सति पश्यामि पश्यामी दुःखतो यान्ति मे क्षणाः ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy