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नाना कलाओं को धारण करने वाली हे कलावति, जैसे कलावान् चन्द्रमा को देखकर ही कुमुद प्रमोद को प्राप्त होता है, उसी प्रकार मैं भी उस कलावान् सुदर्शन को देखकर ही प्रमोद को प्राप्त कर सकती हूं, अन्यथा नहीं। तू देख तो सही, मेरे ये एक-एक क्षण कितने दुःख से व्यतीत हो रहे हैं ॥२८॥
सा सुतरां सखि पश्य सिद्धिरनेकान्तस्य ॥स्थायी॥ वेश्याया बालक बालिकयोस्तनुजो वेश्यावश्यः । तत्र भाति पितुरेव पुत्रता स्पष्ट तया मनुजस्य ॥ तत्त्वतः कः किं कस्य, सिद्धिरनेकान्तस्य ॥१॥ यः कीणाति समर्पमितीदं विक्रीणीतेऽवश्यम् । विपणौ सोऽपि महर्घ पश्यन् कार्यमिदं निगमस्य ॥ सङ्गतिश्चेद ग्राहकस्य, सुतरां सखि पश्य सिद्धिरनेकान्तस्य ॥२॥ ज्वरिणः पयसि दधिनि अतिसरतो द्वयतोऽपि क्षुधितस्य । रुचिरुचिता प्रभवति न भवति सा क्वचिदपि उपोषितस्य ॥ कथञ्चित् सद्विषयस्य, सुतरां सखि पश्य सिद्धिरनेकान्तस्य ॥३॥ एवमनन्तधर्मता विलसति सर्वतोऽपि तत्त्वस्य । भूरास्तां खलतायास्तस्मादभिमतिरेकान्तस्य ॥ प्रसिद्धा न तु विबुधस्य सिद्धिरनेकान्तस्य ॥४॥
हे सखि, देख, अनेक धर्मात्मक वस्तु की सिद्धि स्वयं सिद्ध है। अर्थात् कोई भी कथन सर्वथा एकान्त रूप सत्य नहीं है। प्रत्येक उत्सर्ग मार्ग के साथ अपवाद मार्ग का भी विधान पाया जाता है। इसलिए दोनों मार्गों से ही अनेकान्त रूप तत्त्व की सिद्धि होती है। देख - एक वेश्या से उत्पन्न हुए पुत्र-पुत्री कालान्तर में स्त्री-पुरुष बन गये । पुनः उनसे उत्पन्न हुआ पुत्र उसी वेश्या के वश में हो गया अर्थात् अपने बाप की मांसे रमने लगा। इस अठारह नाते की कथा में पिता के ही पुत्रपना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है। फिर किस मनुष्य का किसके साथ तत्त्व रूप से सच्चा सम्बन्ध माना जाय ! इसलिए मैं कहती हूं कि अनेकान्त की सिद्धि अपने आप प्रकट है। बाजार में जब वस्तु सस्ती मिलती है, व्यापारी उसे खरीद लेता है, और जब वह मंहगी हो जाती है, तब ग्राहक के मिलने पर उसे अवश्य बेच देता है, यही व्यापारी का कार्य है । इसलिए एक नियम पर बैठकर नहीं रहा जाता। सखि, अनेकान्त की सिद्धि तो सुतरां सिद्ध है। और देख - जीर्ण ज्वरवाले पुरुष की दूध में अतिसार वाले पुरुष की
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