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________________ 92 दही में और रोग-रहित भूखे मनुष्य की दोनों में रुचि का होना उचित ही है। किन्तु उपवास करने वाले पुरुष की उन दोनों में से किसी पर भी रुचि उचित नहीं मानी जा सकती । इसलिए मैं कहती हूं कि सखि, एकान्त से वस्तुतत्त्व की सिद्धि नहीं होती, किन्तु अनेकान्त से ही होती है। इस प्रकार प्रत्येक तत्त्व की अनन्तधर्मता प्रमाण से भली भांति सिद्ध होकर विलसित हो रही है । इसलिए एकान्त को मानना तो मूर्खता का स्थान है। विद्वज्जन को ऐसी एकान्त वादिता स्वीकार करने के योग्य नहीं है | किन्तु अनेकान्तवादिता को ही स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि अनेकान्तवाद की सिद्धि प्रमाण से प्रसिद्ध है ॥१४॥ स्वामिन आज्ञाऽभ्युद्धृतये तु सेवकस्य चेष्टा सुखहेतुः । फलवत्तां तु विधिर्विदधातु इत्यचिन्तयच्चेटी सा तु ॥२९॥ रानी की ऐसी तर्क- पूर्ण बातों को सुनकर उस दासी ने विचार किया कि स्वामी की आज्ञा को स्वीकार करना ही सेवक की भलाई के लिए होता है। उसका करना ही उसे सुख का कारण है। उसकी भली-बुरी आज्ञा का फल तो उसे दैव ही देगा । मुझे उसकी चिन्ता क्यों करनी चाहिए। इस प्रकार उस दासी ने अपने मन में विचार किया ॥२९॥ I किन्नु परोपरोधकरणेन कर्त्तव्याऽध्वनि किमु न सरामि ॥ स्थायी ॥ शशकृ तसिंहाकर्षणविषये ऽप्यत्र किलोपदेशकरणेन गुरुतरकार्येऽहं विचरामि, कर्तव्याध्वनि किमु न सरामि ॥ १ ॥ दासस्यास्ति सदाज्ञस्यासौ स्वामिजनान्वितिरिति चरणेन । तद्वाञ्छापूर्तिं वितरामि, कर्तव्याध्वनि किमु न सरामि ॥ २ ॥ पुत्तलमुत्तलमित्यथ कृत्वा द्वाःस्थजनस्याप्यपहरणेन I कृच्छ्र कार्यजलधेर्नु तरामि, कर्तव्याध्वनि किमु न सरामि ॥३॥ शवभूरात्मवता वितता स्यात् षर्वणि मूर्मिंयोगधरणेन । तमितिद्रुतमे वाऽऽनेष्यामि, कर्तव्याध्वनि किमु न सरामि ॥४॥ मुझे दूसरे को रोकने से क्या प्रयोजन है? मैं अपने कर्तव्य के मार्ग पर क्यों न चलूं, ये रानी हैं और मैं नौकरानी हूं, मेरा उनको उपदेश देना या समझाना ऐसा ही है, जैसे कि कोई शशक (खरगोश) किसी सिंह को खींचकर ले जाने का विचार करे । इसलिए मुझे तो अपने गुरुतर कार्य में ही विचरण करना चाहिए, अर्थात् स्वामी की आज्ञा का पालन करना चाहिए । स्वामी लोगों की आज्ञा के अनुसार चलना ही सेवक का कर्त्तव्य है, इसलिए अब मैं उनकी इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करती हूं। यद्यपि यह कार्य समुद्र को पार करने के समान अति कठिन है, क्योंकि राज द्वार पर सशस्त्र द्वारपाल खड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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