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और फिर मैं स्वयं उन्हें देखने के लिए न आता ॥८॥
उक्तवत्येवमेतस्मिन्नन्तरुल्लासशालिनी
दधानाऽऽस्ये
तु
वैलक्ष्यं पुनरप्येवमाह
सा
11811
सुदर्शन के इस प्रकार कहने पर अन्तरंग में अत्यन्त उल्लास को प्राप्त हुई भी वह दासी मुख में विरुपता को धारण कर पुन: इस प्रकार कहने लगी ॥ ९ ॥
विलम्बेन
लम्बेन कर्मणा
1
भुवि प्रसादोपरिसुप्तमवेहि
गच्छ
तम्
॥१०॥
हे पुरुषराज, अब अधिक विलम्ब न करें, दुनियादारी के और सब काम छोड़कर पहले अपने मित्र से मिलें। आइये, आपका स्वागत है, ऐसा कह कर वह दासी सुदर्शन को कपिल के घर पर ले गई और बोली जाइये, जो प्रासाद के ऊपर सो रहे हैं, उन्हें ही अपना मित्र समझिये ॥१०॥
नृराडास्तां
स्वागच्छ
भास्वानासनमापाद्याथोदयाद्रिमिवोन्नतम्
नभः कल्पे
-
तत्र
तल्पे क्षणादुदीरयन्नेवं विषमायां च वेलायां प्रावृषीव चकार सः ॥ १२ ॥
करव्यापारमादरात्
सुदर्शन सेठ ऊपर गया और शय्या के समीप उदयाचल के समान ऊंचे आसन पर सूर्य के समान बैठकर सघन चादर से आच्छादित उस नभस्तल तुल्य शय्यापर आदर-पूर्वक यह कहते हुए अपना कर - व्यापार किया, अर्थात् हाथ बढ़ाया- जैसे कि वर्षा ऋतु की जल बरसती विषम वेला में सूर्य अपने कर - व्यापार को करता है अर्थात् किरणों को फैलता है ॥११-१२॥
भो भो मे शरदीव तनौ
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घनाच्छादनमन्तरा
1
॥११॥
1
( युग्मम् )
मानसस्फीति - करिण्यां दुःसहोऽप्यहो ।
ते ऽयं
सन्तापः
कथमागतः
॥१३॥
हे मित्र, मान- सरोवर आदि जलाशयों के जलों को स्वच्छ बना देने वाली शरद् ऋतु में जैसे दुःसह सन्ताप (घाम) हो जाता है, वैसे ही हे भाई, मेरे मन को प्रसन्न करने वाली तुम्हारी इस कोमल देहलता में यह दुः सहस सन्ताप (ज्वर) कहां से कैसे आ गया ? मुझे इसका बहुत आश्चर्य है || १३ ||
मृदङ्ग वचसः
1
तदा प्रत्युत्तरं वीणायाः सरसा सुदर्शन के उक्त प्रश्न का उत्तर देने के लिए मृदङ्ग के समान गम्भीर वचनो के स्थान पर वीणा के समान यह सरस वाणी शीघ्र प्रकट हुई।
दातुं वाणी
स्थले सद्यः प्रादुरभूदियम्
॥१४॥
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