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________________ स्वीकुर्वन् उच्चैः स्तनाद्रिसंगुप्तो परिणामेनाऽयमतीव . मत्तो ॥५॥ यह अपने अनुपम शारीरिक सौन्दर्य से अतीव भयाढ्यता को स्वीकार कर रहा है, अर्थात् अत्यन्त भयभीत है, अतएव यह मेरे द्वारा उच्च स्तन रुप पर्वत से संरक्षित होने के योग्य है ॥५॥ - 77 भावार्थ इस श्लोक में 'भयाढ्य' पद दो अर्थवाला है । 'भा' का अर्थ आभा या कान्ति है, I उसका तृतीय विभक्ति के एक वचन में 'भया' रुप बनता है, उससे आढ्य अर्थात् युक्त ऐसा एक अर्थ निकलता है और दूसरा भय से आढ्य अर्थात् 'भय-भीत' ऐसा दूसरा अर्थ निकलता है । जो भय से संयुक्त होता है, वह जैसे पर्वत के दुर्गम उच्च स्थलों में संरक्षणीय होता है, वैसे ही यह सुदर्शन भी भयाढ्य (कान्ति युक्ति) है, अतः मेरे दुर्गम उच्च स्तनों से संरक्षणीय है अर्थात मेरे द्वारा वक्षःस्थल से आलिंगन करने योग्य है. इत्युक्ताऽथ गता चेटी श्रेष्ठिनः सन्निधिं पुनः 1 निजगादेदं वचनं च तदग्रतः छद्मना ॥६॥ इस प्रकार कपिला के द्वारा कही गई वह दासी सुदर्शन सेठ के पास गई और उनके आगे छलपूर्वक इस प्रकार बोली ॥६॥ भयाढ्यताम् I भवितुमर्हति सखी तेऽप्यभवत् पश्य नरोतम गदान्वितः । केवलं त्वमसि श्रीमान् श्रीविहीनः स साम्प्रतम्. 11911 हे पुरुषोत्तम, देखो तुम्हारा सखा गदान्वित होकर श्रीविहीन है और तुम केवल निर्गद होकर इस समय श्रीमान् हो रहे हो ॥७॥ - धारक भी हैं। इस बात को ध्यान हुए भी गद (रोग) सेयुक्त नहीं भावार्थ इस श्लोक में श्लेष - पूर्वक दो अर्थ व्यक्त किये गये हैं. नरोत्तम या पुरुषोत्तम नाम श्रीकृष्ण का है वे श्री (लक्ष्मी) के स्वामी भी हैं और गदा नामक आयुध के में रखकर वह दासी सुदर्शन से कह रही है कि आप श्रीमान् होते है, नीरोग हैं और आपका मित्र श्रीमान् नहीं होते हुए भी गद से युक्त अर्थात् रोगी है । होना तो यह चाहिए कि जो श्रीमान् हो, वही गदान्वित हो, पर यहां तो उलटा ही हो रहा है कि जो श्रीमान् है, वह गदान्वित नहीं है और जो गदान्वित है वह श्रीमान् नहीं । सो यह पुरुषोत्तम की श्रीमत्ता और गदान्वितता अलग-अलग क्यों दीख रही है। इस प्रकार दासी ने सुदर्शन से व्यंग्य में कहा। अवागमिष्यमेवं चेदागमिष्यं न कि भद्रे Jain Education International स्वयम् 1 मया नावगतं सुहृद्यापतितं गदम् ॥८ ॥ दासी की बात सुनकर सुदर्शन बोला हे भद्रे, मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं कि मेरे मित्र पर रोग आक्रमण किया है ? अन्यथा यह क्या संभव था कि मुझे मित्र के रोगी होने का पता लग जाता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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