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76 .. यत्र मनाङ्न कलाऽऽकुलताया विकसति किन्तु कला कुलतायाः । भूरानन्दस्याऽऽयाछविरविकलरुपा पायात् ॥४॥
जिस मुद्रा के दर्शन कर लेने पर दर्शक के हृदय में आकुलता का तो नाम भी नहीं रहता, प्रत्युत कुलीनता प्रकट होती है। और दर्शक स्वयं अपनी शुभ चेष्टा के द्वारा आनन्द का स्थान बन जाता है, ऐसी यह निर्दोष वीतरागमुद्रा पापों से हमारी रक्षा करे ॥४॥
अभ्यच्यार्हन्तमायान्तं विलोक्य कपिलाङ्गना । सुदर्शननभूत्कर्तुमसुदर्शनमादरात्
॥१॥ इस प्रकार श्रीअहन्तदेव की पूजन करके घर को आते हुए सुदर्शन को देखकर कपिल ब्राह्मण की स्त्री उस पर मोहित हो गई और उसे अपने प्राणों का आधार बनाने के लिए आदर-पूर्वक उद्यत हुई ॥१॥
भरुत्सखममुं मत्वा तस्या मंदनवन्मनः नातःस्थातुं शशाके दं मनागप्युचितस्थले ॥२॥
उस कपिला ब्राह्मणी का मोम- सद्दश मृदुल मन अग्नि समान तेजस्वी सुदर्शन को देखकर पिघल गया, अतः वह उचित स्थल पर रहने के लिए जरा भी समर्थ न रहा।
भावार्थ - उसका मन उसके काबू में न रहा ॥२॥ दृष्ट वैनमधुनाऽऽदर्श कपिला कपिलक्षणा क्षणेनैवाऽऽत्ससात्कर्तुमितिचापलतामधात्
॥३॥ आदर्श (दर्पण) के समान आदर्श रुप वाले उस सुदर्शन को देखकर कपि (बन्दर) जैसे लक्षण वाली अर्थात् चंचल स्वभाव वाली वह कपिला ब्राह्मणी एक क्षण में ही उसे अपने अधीन करने के लिए चापलता (धनुर्लता) के समान चपलता को धारण करती हुई।
भावार्थ - जैसे कोई मनुष्य किसी को अपने वश में करने के लिए धनुष लेकर उद्यत होता है, उसी प्रकार वह कपिला भी सुदर्शन को अपने वश में करने के लिए उद्यत हुई ॥३॥ मनो मे भुवि हरन्तं विहरन्तममुं सखि । । बन्धामि भुजपाशेन जपाशेनमिहानय
॥४॥ वह कपिला अपनी दासी से बोली - हे सखि, राजमार्ग पर विहार करने वाले इस पुरुष ने मेरे मन को हर लिया है, अतः जपाकुसुम के समान कान्ति वाले इस धूर्त को यहां पर ला, मैं इसे अपने भुज पाश से बांधूगी ॥४॥
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