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________________ - - - - - __ 75 ------- हे जिनवर, तुम्हारी छवि अविकल (निर्दोष) भावों को धारण करने वाली है। हे श्रीवर, इस संसार में ऐसा कौन प्राणी है, जिसके पक्ष कक्ष को (समीपवर्ती वनखण्ड को) कामरुप दावाग्नि ने भस्म न कर दिया हो ! केवल एक आप ही ऐसे द्दष्टिगोचर हो रहे हैं जो कि उससे बचे हैं, या यों कहना चाहिए कि आपने जगत् को भस्म करने वाले उस काम को ही भस्म कर दिया है। हे देव शिरोमणि, हम देख रहे हैं कि शत्रुओं के भय से किसी देव के हाथ में खङ्ग है, किसी के हाथ में धनुष बाण और किसी के हाथ में गदा। कोई शीतादि से पीड़ित होकर वस्त्र चाहता है, कोई भूख से पीड़ित होकर भोजन चाहता है और कोई दरिद्रता से पीड़ित होकर धन की तृष्णा में पड़ा हुआ है । किन्तु हे भगवन्, एक आपकी मूर्ति ही ऐसी दिखाई दे रही है, जिसे न किसी का भय है, न भूख है, न शीतादि की पीड़ा है और न धनादिक की तृष्णा ही है। आपकी यह सहज शान्तिमयी वीतराग मुद्रा है, जिसमें न राग का लेश है और न रोष (द्वेष) का ही लेश है। ऐसी यह शान्तमुद्रा मुझे परम शान्ति दे रही है ॥१-४॥ 卐 छन्दोऽभिधश्चाल, छविरविकलरुपा षायात् साऽऽर्हतीतिनः स्विदपायात् ॥स्थायी॥ वसनाभरणैरादरणीयाः सन्तु मूर्तयः किन्तु न हीयान् । तासु गुणः सुगुणायाश्छविरविकलरुपा पायात् ॥१॥ अर्हन्त भगवान की यह निर्दोष मुद्रा पापों से हमारी रक्षा करे । इस भूमण्डल पर जितनी भी देव-मूर्तियां द्दष्टिगोचर होती है, वे सब वस्त्र और आभूषणों से आभूषित हैं- बनावटी वेष को धारण करती हैं - अतः उनमें सहज स्वाभाविक रुप गुण सौन्दर्य नहीं है, निर्विकारिता नहीं है । वह निर्विकारता और सहज यथा जात रुपता केवल एक अर्हन्त देव की मुद्रा में ही है, अतः वह हम लोगों की रक्षा करे ॥१॥ धरा तु धरणीभूषणताया नैव जात्वपि स दूषणतायाः । सह जमञ्जुलप्राया छविरविकलरुपा पायात् ॥२॥ अर्हन्त देव की यह मुद्रा धरणीतल पर आभूषणता की धरा (भूमि) है, इसमें दूषणता का कदाचित भी लेश नही है, यह सहज सुन्दर स्वभाव वाली है और निर्दोष छवि की धारण करने वाली है, वह हम लोगों की रक्षा करे ॥२॥ यत्र वञ्चना भवेद्रमायाः किरिणी सा जगतो माया । ऐमि तमां सदुपायान् छविरविकलरुपा पायात् ॥३॥ जिस निर्दोष मुद्रा के अवलोकन करने पर स्वर्ग की लक्ष्मी भी वंचना को प्राप्त होती है अर्थात् ठगाई जाती है और जगत् की सब माया जिसकी किंकरणी (दासी) बन जाती है, मैं ऐसी सर्वोत्तम निर्दोष मुद्रा की शरण को प्राप्त होता हूँ। वह हम लोगों की रक्षा करे ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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