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________________ 74 केवलज्ञान रूप परमज्योति के धाम, मैंने इस भूमण्डल पर अनेक देवों को देखा है और बहुत बार उनकी सेवा-भक्ति और स्तुति भी की है। परन्तु जैसी निस्पृह परोपकार वृत्ति आपकी है, वह उनमें नहीं पाई है। अन्य तारा समान देवों में आप सूर्य-समान महान् तेजस्वी देवाधिदेव हैं और निष्काम होने पर भी संसारी जीवों के अन्तस्तम के अपहरण करने वाले हैं अतः आपके समान अन्य कोई नहीं है ॥३॥ सर्वे सम्प्रति भान्ति निजशंसिनः स्वावलम्बनं ह्यादिशं स्तवं शान्तये तव शिक्षा समीक्षा - परा नाभिन् । तव हे जिनेश, वे सब अन्य देव अपनी अपनी प्रशंसा करने वाले हैं, अतएव मुझे वे उत्तम प्रतीत नहीं होते हैं । किन्तु स्वावलम्बन का उपदेश देने वाले हे सहज जात स्वाभाविक सुन्दर वेश के धारक जिनेन्द्र, आपही शान्ति के देने वाले हो और हे लोकमान्य, आपकी शिक्षा परीक्षा प्रधान है, आपका उपदेश है कि किसी के कथन को बिना सोचे समझे मत मानो, किन्तु सोच समझकर परीक्षा करके अंगीकार करो ॥४॥ I जिनेश सुवेश 11 देवांघिसेवा ॥४॥ # श्यामकल्याणरागः क्र जिनप परियामो मोदं तव मुखभासा ॥स्थायी ॥ खिन्ना यदिव सहजक द्विधिना, निःस्वजनी निधिना सा ॥ १ ॥ सुरसनमशनं लब्ध्वा रुचिरं सुचिरक्षुधितजनाशा ॥२॥ के किकुलं तु लपत्यतिमधुरं जलदस्तनितसकाशात् किन्न चकोरद्दशो: शान्तिमयी प्रभवति चन्द्रकला सा ||४|| हे जिनदेव, आपकी मुख कान्ति के देखने से हम इस प्रकार प्रमोद को प्राप्त होते हैं, जैसे कि जन्म-जात दरिद्रता से पीड़ित निर्धन पुरुष की स्त्री अकस्मात् प्राप्त हुए धन के भण्डार को देखकर प्रसन्न होती है, अथवा जैसे चिरकाल से भूखा मनुष्य अच्छे रसीले सुन्दर भोजन को पाकर प्रसन्न होता है, अथवा जैसे सजल मेघ गर्जन से मयूरगण हर्षित हो नाचने और मीठी बोली बोलने लगते हैं। जैसे चन्द्र की चन्द्रिका चकोर पक्षी के नेत्रों को शान्ति - दायिनी होती है, उसी प्रकार आपके दर्शनों से हमें भी परम शान्ति प्राप्त हो रही है ॥१-४॥ अयि जिनप, ॥स्थायी ॥ तेच्छ विरविकलभावा पक्षक क्षमिति, कस्य दहन्ति श्रीवर, न मदनदावा कस्य करे ऽसिररेरिति सम्प्रति, अमर प्रवर, भिया वा वाञ्छति वसनं स च पुनरशनं कस्य न धनतृष्णा वा भूरागस्य न वा रोषस्य न, शान्तिमयी सहजा वा ॥४॥ ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only 118 11 ॥२॥ www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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