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________________ - - - - - - - - - - - - - - के चरणों में अर्पण करूं और सदा के लिए सौभाग्यशाली बनू ? कब मैं षट्-रसमयी नाना प्रकार के व्यञ्जन और अमृतपिन्ड को लेकर जिनमुद्रा के आगे अर्पण करूं, जिससे कि मैं भूख के वश में न रहूँ । कब मैं शुद्द घृत, कपूर या रत्नमय दीपक लाकर जिनमुद्रा के आगे जलाऊ, जिससे कि मेरे मन का सब अंधकार विनष्ट हो और ज्ञान का प्रकाश हो । कब मैं कृष्णागुरु, चन्दन, कर्पूरादिक मयी दशाङ्गी धूप जलाकर जिनमुद्रा के आगे सुवासना करूं और अद्दष्टकी छाया को कर्म के प्रभाव को दूर करें । कब मैं आम, नारंगी, पनस, केला आदि उत्तम फल उदारभाव से जिनमुद्रा के आगे समर्पण करूं, जिससे कि मेरी असफलता का विनाश हो और प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त हो । कब मैं जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प माल, नैवेद्य, दीप, धूप और फल को एकत्रित कर, उनका अर्घ बनाकर जिन मुद्रा के आगे अर्पण कर अनर्ध-पद (मोक्ष) को प्राप्त करुं ? भूरामल कहते हैं कि इस प्रकार श्रीजिननाथ की प्रतिमा के पूजा-विधान से मनुष्य नाना प्रकार की आकुलता-व्याकुलताओं के विनाश को प्राप्त होकर सर्व प्रकार के उत्सव का स्थान बन जाता हैं ॥१-१०॥ तव देवांघ्रिसेवां सदा यामि त्विति कर्तव्यता भव्यताकामी स्थायी। अघहरणी सुखपूरणी वृत्तिस्तव सज्ञान । श्रृणु विनतिं मम दुःखिनः श्रीजिनकृपानिधान ॥ कुरु तृप्तिं प्रक्लृप्ति हर स्वामिन् तब देवाघिसेवां सदा यामि ॥१॥ हे देव, मैं सदा ही तुम्हारे चरणों की सेवा करता रहूं और अपने कर्तव्य का पालन कर भव्यपना स्वीकार करूं, ऐसा चाहता हूं । हे उत्तम ज्ञान के भण्डार श्रीभगवान, आपकी प्रवृत्ति सहज ही भक्तों के दुःखों को दूर करने वाली और सुख को देने वाली है। इसलिए हे कृपा-निधान श्रीजिनदेव, मुझ दुखिया की भी विनती सुनो और हे स्वामिन् मेरी जन्म-मरण की बाधा को हर कर मुझे भी सुखी करो ॥१॥ अभिलषितं वरमाप्तवान् लोकः किन्न विमान । वेलेयं हतभागिनो मम भो गुणसन्धान ॥ किमिदानीं न दानिन् रसं यामि ॥ तव देवांघिसेवां. ॥२॥ हे विमान, मान-मायादि से रहित भगवन्, आपकी सेवा भक्ति करके क्या अनेक लोगों ने अभिलषित वर नहीं पा लिया है ? अर्थात् पाया ही है। अब यह मुझ हतभागी की बारी है, सो हे गुणों के भण्डार, हे महादान के देने वाले, क्या अब मैं अभीष्ट वर को प्राप्त नहीं करूंगा ॥२॥ भुवि देवा बहुशः स्तुता भो सज्जेयोतिर्धाम । रविरिव नक्षत्रेषु तु त्वं निष्काम ललाम ॥ न तु इतरस्तरामन्तरा यामि । तव देवांघिसेवां. ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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