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________________ - 72 -___ यतः सौभाग्यं भायात् ॥स्थायी । ॥४॥ षड्-रसमयनानाव्यजनदलमविकलमपि च सुधायाः, सम्बलमादायार्पयेयमहमग्रे जिनमुद्रायाः, वशेऽपि स्यां न क्षुधायाः ॥स्थायी ॥५॥ शुद्धसर्पिषः कर्पूरस्याप्युत माणिक्यकलायाः । प्रग्वालयेयमिह दीपक महमने जिनमुद्रायाः, हतिः स्याच्चितनिशायाः ॥स्थायी ॥६॥ कृष्णागुरुचन्दनकर्पूरादिक मय धूपदशायाः । ज्वालनेन कृत्वा सुवासनामग्रे जिनमुद्रायाः, हरे यमद्दष्ट च्छायाम् . . ॥स्थायी ॥७ ॥ आनं नारङ्गं पनसं वा फलमथवा रम्भायाः । समर्पयेयमुदारभावतः पुरतो जिनमुद्रायाः, हतिः स्यादसफलतायाः ॥स्थायी ॥८॥ जलचन्दनतन्दुलकु सुमस्रक् चरुणि दीपशिखायाः । तां च धूपमथ फलमपि धृत्वा पुरतो जिनमुद्रायाः, स्थलं स्यामनर्घतायाः ॥ स्थायी ॥९॥ एवंविधपूजाविधानतो जिननाथप्रतिमायाः । भातु जनः खलु सकलोत्सवभूरासाद्याकुलतायाः विनाशमनेकविधायाः ॥स्थायी ॥१०॥ श्री जिनभगवान् की पूजन करने का कब वह सुअवसर मुझे प्राप्त हो, जबकि मैं गंगा के निर्मल जल को सुवर्ण-घट में भर कर लाऊँ और जिन मुद्रा के चरणों में विसर्जन कर अपने कर्म-कलंक को बहाऊं ? कब मैं मलयागिर चन्दन लाकर और कर्पूर-केशर के साथ घिसकर उसे जिनमुद्रा के चरणों में विसर्जन करूं, ताकि मेरे सर्व विघ्न विनष्ट हो जायें। कब मैं मोतियों के समान उज्जवल तन्दुलों को लेकर श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से जिनमुद्रा के आगे पुञ्ज देकर स्वर्ग लक्ष्मी का पति बनूं ? कब मैं कमल, कुन्द, चमेली, चम्पा आदि के सुगन्धित पुष्प लाकर निरहंकारी बन विनयभाव के साथ जिनमुद्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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