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मद मोह (नशा) उत्पन्न करने वाली मदिरा, भांग, तम्बाकू आदि नशीली वस्तुओं का सेवन न करें विनीत भाव धारण करके वृद्धजनों की आज्ञा स्वीकार करें ॥४४॥
सर्वेषामुपकाराय मार्गः साधारणो ह्ययम् । युवाभ्यामुररीकार्यः परमार्थोपलिप्सया ॥४५॥
सर्व प्राणियों के उपकार के लिए यह सुख-दायक साधारण (सामान्य, सरल) धर्म मार्ग कहा है, सो परमार्थ की इच्छा से तुम दोनों को यह स्वीकार करना चाहिए। ४५॥
श्रुत्वेति यतिराजस्य वचस्ताभ्यां नमस्कृतम् । तत्पादयोर्विनीताभ्यामोमुच्चारणपूर्वकम्
॥४६॥ इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर विनम्रीभूत उन दोनों ने (सुदर्शन और मनोरमा ने) अपनी स्वीकृति सूचक 'ओम्' पद का उच्चारण करते हुए उनके चरणों में नमस्कार किया ॥४६॥
अन्योन्यानुगुणैक मानसतया कृत्वाऽर्ह दिज्याविधिं पात्राणामुपतर्पणं प्रतिदिनं सत्पुण्यसम्पन्निधी। पौलोमीशतयज्ञतुल्यकथनौ कालं तकौ निन्यतुः प्रीत्यम्बेक्षुधनुर्धरौ स्वविभवस्फीत्या तिरश्चक्रतुः ॥४७॥ तदनन्तर वे मनोरमा और सुदर्शन आपस में एक दूसरे के गुणों में अनुरक्त चित्त रहते हुए प्रतिदिन अर्हन्त देव की पूजा करके और पात्रों को नवधा भक्ति-पूर्वक दान देकर के उत्तम पुण्य के निधान बनकर इन्द्र और इन्द्राणी के समान आनन्द से काल बिताने लगे, तथा अपने वैभव-ऐश्वर्य को समृद्धि से रति और कामदेव का भी तिरस्कार करते हुए सांसारिक भोगोपभोगों का अनुभव करते हुए रहने लगे ॥४७॥
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्वयं वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तेन प्रोक्त सुदर्शनोदय इह व्यत्येति तुर्याख्यया । सर्गः प्राग-जनुरादिवर्णनकरः श्री श्रेष्ठिनोऽसौ रयात् ॥
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणी भूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर-विरचित इस सुदर्शनोदय काव्य में सुदर्शन के पूर्वभव का वर्णन करने वाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ।
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