________________
67
हे भव्यात्मन् तुम्हें जो कुछ सुख-सम्पदा, ऐश्वर्य आदिक प्राप्त हुआ है, वह सब पूर्वभव में लगाये हुए धर्म रुप कल्पवृक्ष का ही फल है. जैसे आम आदि फल में रस, गुठली, बक्कल आदि होते हैं, उसी प्रकार उस धर्म रुप फल का आनन्द रुप काम भोग तो रस है और धन-सम्पदादि पदार्थों का समुदाय उस फल के गुठली वक्कल आदि जानना चाहिए ॥ ३९॥
हे
वत्स
त्वञ्च
धर्म एवाद्य आख्यातस्तं
पुरुषार्थ चतुष्टये । न जातुचित् ॥४०॥
हे वत्स, यह तो तुम भी जानते हो कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में धर्म ही प्रधान है और इसीलिए वह सब पुरुषार्थों के आदि में कहा गया है। धर्म पुरुषार्थ के बिना शेष अन्य पुरुषार्थ कदाचित् भी संभव नहीं है, उनका होना तो उसी के अधीन है ॥४०॥
मा
1
सागसोऽप्याङ्गि नो
हिं स्यात्सर्वभूतानीत्यार्षं धर्मे प्रमाणयन् रक्षेच्छक्त्या किन्नु निरागस :
॥४१॥
'किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करे' इस आर्ष- वाक्य को धर्म के विषय में प्रमाण मानते हुए अपराधी जीवों की भी यथाशक्ति रक्षा करना चाहिए । फिर जो निरपराध हैं, उनकी तो खास कर रक्षा करना ही चाहिए ॥ ४१ ॥
ब्रूयाददर्त्त
प्रशस्तं वचनं परोत्क षसहिष्णुत्वं
1
नाऽऽददीत जह्याद्वाञ्छन्निजोन्नतिम्
॥४२॥
सदा उत्तम सत्य वचन बोले, दूसरे के मर्मच्छेदक और निन्दा-परक सत्य वचन भी न कहे, किसी की बिना दी हुई वस्तु को न लेवे और अपनी उन्नति को चाहने वाला पुरुष दूसरे का उत्कर्ष देखकर मन में असहनशीलता (जलन - कुढ़न) का त्याग करे ॥ ४२ ॥
सदा
पर्वणि
I
स्वीयञ्च पिबेज्जलम्
॥४३॥
दूसरे की शय्या का अर्थात् पुरुष परस्त्री के और स्त्री परपुरुष के सेवन का त्याग करे और पर्व के दिनों में पुरुष अपनी स्त्री का और स्त्री अपने पुरुष का सेवन न करे। सदा अनामिष भोजी रहे, अर्थात् मांस को कभी भी न खावे, किन्तु अन्न- भोजी और शाकाहारी रहे । एवं वस्त्र से छने हुए जल को पीवें ॥४३॥
गृह्णीयाद्
नमदाचरणं परमप्यनुगृह्णीयादात्मने
न क्र मेतेतरत्तल्पं अनामिषाशनीभूयाद्वस्त्रपूतं
Jain Education International
जानासि विनाऽन्ये
कृत्वा
पक्षपातवान्
For Private & Personal Use Only
च
वृद्धशासनम्
॥४४॥
www.jainelibrary.org