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- 66 .. भक्त्याऽर्पितं वह्नयुपकल्पि शाकं भैक्ष्येण भुङ्क्त्वाऽथ दिवैकदा कम् तदैव पीत्वाऽमुकसंघ के तु स्थित्वा स्मरन्तो परमार्थनेतुः ॥३४॥
अग्नि-पक्क दाल-भात, शाक-रोटो आदि जिन भोज्य पदार्थों को गृहस्थ भक्ति से देता था, अथवा वह स्वयं भिक्षावृत्ति से ले आती थी, उन्हें ही एक बार दिन में खाकर और तभी पानी पीकर वह आर्यिकाओं के संघ मे रहती हुई सदा परमार्थ (मोक्ष-मार्ग) के नेता जिनदेव का स्मरण करती रहती थी ॥३४॥
सौहार्दमङ्गिमात्रे तु किल्टे कारुण्यमुत्सवम् । गुणिवर्गमुदीक्ष्याऽगान्माध्यस्थ्यं च विरोधिषु ॥३५॥
वह सदा प्राणिमात्र पर मैत्रीभाव रखती थी, कष्ट से पीड़ित प्राणी पर करुणाभाव रखती हुई उसके दुख को दूर करने का प्रयत्न करती रहती थी, गुणी जनों को देखकर अतीव हर्षित हो उत्सव मनाया करती थी और विरोधी विचार वाले व्यक्तियों पर माध्यस्थ्य भाव रखती थी ॥३५॥
वारा वस्त्राणि लोकानां क्षालयामास या पुरा । ज्ञानेनाद्याऽऽत्मनश्चित्तमभूत्क्षालितुमुद्यता (शालयितुंगता) ॥३६॥
जो धोबिन पहले जल से लोगों के वस्त्रों को धो-धोकर स्वच्छ किया करती थी। वही अब क्षुल्लिका बनकर ज्ञानरुप जल के द्वारा अपने मन के मैल को धो-धोकर उसे निर्मल स्वच्छ बनाने के लिए सदा उद्यत रहती थी ॥३६॥
सैषा मनोरमा जाता तव वत्स मनोरमा । सती सीतेव रामस्य यया भाति भवानमा ॥३७॥
हे वत्स सुदर्शन, वही क्षुल्लिका मरकर तुम्हारे मन को रमाने वाली यह मनोरमा हुई है। जैसे सीता राम के मन को हरण करती हुई पूर्वकाल में शोभित होती थी, उसी प्रकार आप भी इसके साथ इस समय शोभित हो रहे हैं ॥३७॥
व्युत्पन्नमानितत्वेन देवत्वं त्वयि युज्यते । देवीयं ते महाभाग समा समतिलोत्तमा ॥३८॥
हे महाभाग, व्युत्पन्न (विद्वान्) पुरुषों के द्वारा सम्मानित होने से तुममें देवपना प्रकट है और उत्तम लक्षणों वाली यह मनोरमा भी तिलोत्तमा के समान देवी प्रतीत हो रही है ॥३८॥
सर्वमेतच्च भव्यात्मन् विद्धि धर्मतरोः फलम् । कामनामरसो यस्य स्यादर्थस्तत्समुच्चयः ॥३९॥
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