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________________ 61 सुयोग पयोगयोः 1 नेदमनुसन्दधानोऽयं भूत्वा मोही दुरारोही वृथा हसति रौति च ॥१०॥ कर्म परवशता के इस रहस्य को नहीं समझता हुआ यह अज्ञानी मोही जीव वृथा ही इष्ट वस्तु के संयोग में हंसता है और अनिष्ट वस्तु के संयोग में रोता है ॥१०॥ ज्ञानी सच्चिदानन्दमात्मानं तत्तत्सम्बन्धि चान्यच्च ॥११॥ किन्तु ज्ञानी जीव अपनी आत्मा को शरीर से भिन्न सत् (दर्शन) चित् (ज्ञान) और आनन्द (सुख) स्वरूप जानकर उसमें ही तल्लीन रहता है और शरीर एवं शरीर के सम्बन्धी कुटुम्बादि को पर जानकर उनसे विरक्त हो उन्हें छोड़ देता है ॥११॥ संसार स्फीतये विलोमतामितो जन्तोर्भावस्तामस स्याल्लक्ष्माधर्म धर्मयोः मुक्तयै ॥१२॥ जीव के तामसभाव- ( विषय कषायरूप प्रवृत्ति - ) को अधर्म कहा गया है । यह तामसभाव ही संसार की परम्परा का बढ़ाने वाला है और इससे विपरीत जो सात्त्विक भाव (समभाव या साम्यप्रवृत्ति) । यह सात्त्विक भाव ही मुक्ति का प्रधान कारण है। संक्षेप में यही धर्म ॥१२॥ है, उसे धर्म कहा गया है और अधर्म का स्वरुप है वागेव कौमुदी साधु-सुधांशोर मृतस्रवा । वृषभदासस्याभून्मोह तिमिरक्षतिः तया ॥१३॥ इस प्रकार चन्द्र की चन्द्रिका के समान अमृत-वर्षिणी और जगद - आह्लादकारिणी मुनिराज की वाणी को सुनकर उस वृषभदास सेठ का मोहरूप अन्धकार दूर हो गया ॥१३॥ तमाश्विनं मेघहरं श्रितस्तदाऽधिपोऽपि दासो वृषभस्य सम्पदाम् । मयूरवन्मौनपदाय भन्दतां जगाम द्दष्ट्वा जगतोऽप्यकन्दताम् ॥१४॥ मेघों के दूर करने वाले और कीचड़ के सुकाने वाले अश्विन मास को पाकर जैसे मयूर मौन भाव को अंगीकर करता है और अपने सुन्दर पुच्छ-पखों को नोंच नोंच कर फेंक देता है, ठीक इसी प्रकार मुझ जैसों के शीघ्र ही पाप को नाश करने वाले मुनिराज को पाकर सम्पदाओं का स्वामी होकर के भी श्री वृषभदेव का दास वह वृषभदास सेठ जगत् की असारता और कष्ट-रूपता को देखकर मयूर - पंखों के समान अपने सुन्दर केशों को उखाड़ कर और वस्त्राभूषण त्यागकर मुनि पदवी को प्राप्त हुआ, अर्थात दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण करके मुनि बन गया ||१४|| Jain Education International ज्ञात्वाऽङ्गतः त्यक्त्वाऽऽत्मन्यनुरज्यते पृथक् । For Private & Personal Use Only इष्यते । www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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