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उत्तम वंशरुप वृषभदास सेठ प्राप्त हो गया, अतः सहज में ही धर्मवृद्धि रुप धनुष प्रकट हो गया ।
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श्रोतुमिच्छामि श्रेष्ठि समाकूतं
धर्म सन्नामवस्तुनः निशम्याऽऽह यतीश्वरः
॥५॥
जब मुनिराज ने धर्म वृद्धि आशीर्वाद दिया तब सेठ ने कहा भगवन्, 'धर्म' इस सुन्दर नाम वाली वस्तु का क्या स्वरुप है ? इस प्रकार सेठ के अभिप्राय को सुनकर मुनिराज बोले ॥५॥
स्वरूपं
इति
धर्मस्तु विन्दन्
धारयन् विश्वं तदात्मा विश्वमात्मसात् । विसृजेद
भद्रतयाऽन्यार्थ
जो विश्व को धारण करे अर्थात् सारे जगत् का प्रतिपालन करे, ऐसे शुद्द वस्तु स्वभाव को धर्म कहते हैं। इस धर्म को धारण करने वाला धर्मात्मा पुरुष सारे विश्व को अपने समान मानता हुआ अन्य के कल्याण के लिए भद्रता पूर्वक अपने शरीर को अर्पण कर देगा, किन्तु अपने देह की रक्षार्थ किसी भी जीव-जन्तु को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहेगा ॥ ६ ॥
देही
स्वं
मत्वा
देहस्वरूपं निजं परं
रज्यमानोऽत इत्यत्र एवं च मोहतो मह्यां
देह सम्बन्धिनं सर्वमन्यदित्येष
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यह संसारी प्राणी अपने द्वारा ग्रहण किये हुए इस शरीर को और शरीर से सम्बन्ध रखने वाले माता, पिता, पुत्रादि कुटुम्बी जन को अपना मानकर शेष सर्व को अन्यसमझता है ॥७॥
परस्मात्तु विरज्यते । लाति त्यजति चाङ्गकम्
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अतः जिन्हें वह अपना समझता है, उन्हें इष्ट मानकर उनमें अनुराग करने लगता है और जिन्हें पर समझता है, उन्हें अनिष्ट मानकर उनसे विरक्त होता है अर्थात् विद्वेष करने लगता है । इस मोह के वशीभूत होकर यह जीव इस संसार में एक शरीर को छोड़ता और दूसरे शरीर को ग्रहण करता है और इस प्रकार वह जन्म मरण करता हुआ संसार में दुःख भोगता रहता है ||८||
पिता
पुत्रत्वमायाति मित्रतामित्थमङ्ग भू
शत्रुत्वमन्यदा । रङ्ग भूरिव
शत्रुश्च
॥९॥
रंगभूमि ( नाटक घर) के समान इस संसार में यह प्राणी कभी पिता बनकर पुत्रपने को प्राप्त होता है, कभी पुत्र ही शत्रु बन जाता है और कभी शत्रु भी मित्र बन जाता है॥९॥
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पुत्रः
देहमात्मनः ॥६॥
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भावार्थ इस परिवर्तनशील संसार में कोई स्थायी शत्रु या मित्र, पिता या पुत्र, माता या पुत्री बनकर नहीं रहता, किन्तु कर्म वशीभूत होकर रंगभूमि के समान सभी वेष बदलते रहते हैं।
गणम् मन्यते
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