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अथ चतुर्थः सर्गः
अथ कदापि वसन्तवदाययावुपवनं निजपल्लवमायया। जगदलं विदधत्सकलं भवानृषिवरः सुमनः समुदायवान् ॥१॥
अथानन्तर किसी समय उस नगर के उपवन में वसन्तराज के समान कोई ऋषिराज अपने संघ के साथपधारे । जैसे वसन्तराज आता हुआ वृक्षों को पल्लवित कर जगत् में आनन्द भर देता है, उसी प्रकार ये ऋषिराज भी आते हुए अपने चरण कमलों की शोभा से जगत् भरको आनन्दित कर रहे थे। जैसे वसन्त के आगमन पर वृक्ष सुमनों (पुष्पों) के समुदाय से संयुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार ये ऋषिवर भी उत्तम मनवाले साधु सन्तों के समुदाय वाले थे ॥१॥
प्रवरमात्मवतामभिनन्दिषु निखिलपौरगणोऽप्यभिवन्दिषुः। मुनिवरं वनमेष तदाऽवजच्छुि यमितः स्वकरे कुसुमस्त्रजः ॥२॥
आत्मज्ञान और धर्मभावना के धारक लोग जिन्हें देखकर आनन्दित होते हैं, ऐसे महात्माओं में मुख्य गिने जाने वाले उन मुनिवर के अभिवन्दन करने के इच्छुक समस्त पुरवासी लोग । अपने-अपने हाथों में पुष्पमालाओंको लेने के कारण अनुपम शोभा को धारण करते हुए उपवन को चले ॥२॥
अजानुभविनं इष्टुं जानुजाधिपतिर्ययौ। परिवारसमायुक्तः परिवारातिवर्तिनम्
॥३॥ समस्त कुटुम्ब-परिवारके त्यागी ओर एकमात्र अपनी अजर-अमर आत्मा का अनुभव करने वाले उन मुनिवर के दर्शनों के लिए वह वैश्याधिपति वृषभदास सेठ भी अपने परिवार के लोगों के साथ गया ॥३॥
उत्तमाङ्ग सुवंशस्य यदासीद्दषिपादयोः। धर्मवृद्धिरभूदास्याद् गुणमार्गणशालिनः ॥४॥
जब उस उत्तम वंश में उत्पन्न हुए सेठ ने अपने उत्तमाङ्ग (मस्तक) को ऋषि के चरणों में रक्खा, तब गुण स्थान और मार्गणा स्थानों के विचारशाली ऋषिराज के मुख से 'धर्मवृद्धि' रुप आशीर्वाद प्रकट हुआ ॥४॥
भावार्थ - इस श्लोक का श्लेष रुप अर्थ यह भी है कि जैसे कोई मनुष्य गुण (डोरी) और मार्गण (वाण) वाला हो, उसे यदि उत्तम वंश (वांस) प्राप्त हो जाता है, तो वह सहज में ही उसका धनुष बना लेता है। इसी प्रकार ऋषिराज तो गुण स्थान और मार्गणास्थान के ज्ञान धारक थे ही। उन्हें
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