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________________ -------------- 50 -- जैसे समुद्र से चन्द्र को प्राप्त कर नक्षत्रों का आधार भूत आकाश उसकी चन्द्रिका से आलोकमय हो जाता है, उसी प्रकार गृहस्थों के गुणों का आधार वह सेठ भी प्रिया से प्राप्त हुए उस चन्द्रतुल्य पुत्रको देखकर सस्मित मुख हो गया ॥१०॥ कुलदीपयशःप्रकाशितेऽपतमस्यत्र जनीजनैर्हि ते। समयोचितमात्रनिष्ठितिर्घटिता मङ्गलदीपकोद्धृतिः ॥११॥ श्रेष्ठिकुल के दीपक उस पुत्र के यश और शरीर की कान्ति के द्वारा प्रकाशित उस प्रसूति स्थान में अन्धकार के अभाव होने पर भी कुल की वृद्धा स्त्रियों ने समयोचित कर्त्तव्य के निर्वाह के लिए माङ्गलिक दीपक जलाये ॥११॥ गिरमर्थयुतामिव स्थितां ससुतां सँस्कुरुते स्म तां हिताम् । स ततो मृदुगन्धतोयतः जिनधर्मो हि कथञ्चिदित्यतः ॥१२॥ जिस प्रकार 'कथञ्चित' चिह्न से युक्त स्याद्वाद के द्वारा जैन धर्म प्राणिमात्र का कल्याण करने वाली अर्थ-युक्त वाणी का संस्कार करता है, उसी प्रकार उस वृषभदास सेठ ने पुत्र के साथ अवस्थित उसकी हितकारिणी माता का मृदुल गन्धोदक से जन्मकालिक संस्कार किया। अर्थात् पुत्र और उसकी माता पर गन्धोदक क्षेपण किया ॥१२॥ सितिमानमिवेन्दतस्तकमभिजातादपि नाभिजातकम् । परिवर्धयति स्म पुत्रतः स तदानीं मृदुयज्ञसूत्रतः ॥१३॥ तदनन्तर उस सेठ ने तत्काल के पैदा हुए उस बालक के नाभिनाल को कोमल यज्ञ-सूत्र से बांधकर उसे दूर कर दिया, मानो द्वितीया के चन्द्रमा पर से उसके कलङ्क को ही दूर कर दिया हो ॥१३॥ स्नपितः स जटालवालवान् विदधत्काञ्चनसच्छविं नवाम् । अपि नन्दनपादपस्तदेह सुपर्वाधिभुवोऽभवन्मुदे ॥१४॥ तत्पश्चात स्नान कराया गया वह काले भंवराले बालों वाला बालक तपाये हुए सोने के समान नवीन कान्ति को धारण करता हुआ सेठ के और भी अधिक हर्ष का उत्पन्न करने वाला हुआ, जैसे कि सुन्दर जटाओं से युक्त, जल-सिञ्चित क्यारी में लगा हुआ नन्दनवन का वृक्ष (कल्पवृक्ष) देवताओं के हर्ष को बढ़ाने वाला होता है ॥१४॥ सुतदर्शनतः पुराऽसकौ जिनदेवस्य ययौ सुदर्शनम् । इति तस्य चकार सुन्दरं सुतरां नाम तदा सुदर्शनम् ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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