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करिराडिव पूरयन्महीमपि दानेन महीयसा सहि महिमानमवाप विश्रुत-गुणयुक्तोन्नतवंशसंस्तुतः
॥६॥
प्रसिद्ध उत्तम गुणोंरूप मुक्ताफलों से युक्त एवं उन्नत वंश वाले उस सेठ ने गजराज के समान महान् दान से सारी पृथ्वी को पूरित करते हुए 'दानवीर' होने की महिमा को प्राप्त किया।
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भावार्थ पुत्र - जन्म के हर्षोप लक्ष में सेठ वृषभदास ने सारी प्रजा को खूब ही दान देकर सम्मान प्राप्त किया ||६ ॥
स वा।
मृदुचन्दनचर्चिताङ्ग वानपि प्रचलन्निवामलः
गन्धोदक पात्रतः पृथुपद्महृदवान् हिमाचल: 11911
शुशुभे
मृदुल चन्दन से चर्चित है अंग जिसका, ऐसा वह सेठ जिन-पूजन और दान करने के अनन्तर गन्धोदक - पात्र को हाथ में लेकर घर को आता हुआ ऐसा शोभित हो रहा था, मानों निर्मल विशाल पद्म सरोवर वाला हिमवान् पर्वत ही चल रहा हो ॥७॥
अवलोकयितुं तदा धनी निजमादर्श इवाङ्ग जन्मनि 1 श्रितवानपि सूतिकास्थलं किमु बीजव्यभिचारि अङ्कुरः ॥ ८ ॥ घर पहुँच कर वह सेठ पुत्र को देखने के लिए प्रसूति स्थान पर पहुँचा और दर्पण के समान उत्पन्न हुए पुत्र में अपनी ही छवि को देखकर अति प्रसन्न हुआ। सो ठीक ही है क्या अकुंर बीज से भिन्न प्रकार का होता है ? अर्थात् नहीं ।
भावार्थ उत्पन्न होने वाला अंकुर जैसे अपने बीज के समान होता है, उसी प्रकार यह पुत्र भी सेठ के समान ही रुप-रंग और आकृतिवाला था ॥८॥
परिपातुमपारयँश्च सोऽङ्ग जरुपामृतमद्भुतं स्तुतवानुत निर्निमेषतां द्रुतमेवायुतनेत्रिणा
धृताम् ॥९॥
अपने निमेष-उन्मेष वाले इन दोनों नेत्रों से पुत्र के अद्भुत अपूर्व सौन्दर्य रुप अमृत का पान करता हुआ वह सेठ जब तृप्ति के पार को प्राप्त नहीं हुआ, तब वह सहस्र नेत्र धारक इन्द्र की निर्निमेष दृष्टि की प्रशंसा करने लगा ।
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निवयै:
भावार्थ
सेठ को उस पुत्र के दर्शन से तृप्ति नहीं हो रही थी और सोच रहा था कि यदि मैं भी सहस्र नेत्र का धारक निर्निमेष दृष्टि वाला इन्द्र होता, तो पुत्र के रुपामृत का जी भर कर पान
करता ॥९॥
सुरवर्त्मवदिन्दुमम्बुधेः
शिशुमासाद्य
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स्मितसत्विषामयमभवद्धामवतां
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दशोः 1
कलत्रसन्निधेः । गुणाश्रयः
॥१०॥
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