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रहसि तां युवतिं मतिमानत उदरिणी समुदैक्षत यत्नतः । निधिघटीं धनहीनजनो यथाऽधिपतिरेष विशां स्वहशा तथा ॥४९॥
जैसे धन-हीन जन धन से भरी मटकी को पाकर अति सावधानी के साथ एकान्त में सुरक्षित रखता है, वैसे ही यह वैश्यों का स्वामी बुद्धिमान् सेठ भी अपनी इस गर्भिणी सेठानी की एकान्त में बड़े प्रयत्न के साथ रक्षा करने लगा ॥४९।।।
परिवृद्धिमितोदरां हि तां सुलसद्धारपयोधराञ्चिताम् । मुमुदे समुदीक्ष्य तत्पतिर्भुवि वर्षामिव चातकः सतीम् ॥५०॥
जैसे मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को देखकर चातक पक्षी अति प्रमोद को प्राप्त होता है, उसी प्रकार दिन पर दिन जिसके उदर की वृद्धि हो रही है और जिसके स्तनमण्डल पर लटकता हुआ सुन्दर हार सुशोभित हो रहा है, ऐसी अपनी गर्भिणी उस सेठानी को देख-देख कर उसका स्वामी सेठ वृषभदास भी बहुत प्रसन्न होता था ॥५०॥
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्व यं वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तेन प्रोक्त सुदर्शनोदय इयान् सर्गो द्वितीयो गतः
श्रीयुक्तस्य सुदर्शनस्य जननीस्वप्नादिवाक्सम्मतः ॥
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और वृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणीभूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर-विरचित इस सुदर्शनोदय काव्य में सुदर्शन की माता के स्वप्न देखने और उनके फलका वर्णन करने वाला यह द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ ।
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