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इहोदयोऽभूदुदरस्य यावत् स्तनानने ध्यामलताऽपि तावत् । स्वभावतो ये कठिना सहेरं कुतः परस्याभ्युदयं सहेरन् ॥४४॥
उस सेठानी के उदर की इधर जैसे-जैसे वृद्धि हो रही थी, उधर वैसे-वैसे ही उसके कठोर स्तनों के मुखपर कालिमा भी आकर अपना घर कर रही थी। सो यह ठीक ही है, क्योंकि जो लोग स्वभाव से कठोर होते हैं, वे दूसरे के अभ्युदय को कैसे सहन कर सकते हैं ॥४४॥
कुचावतिश्यामलचूचुकाभ्यां सभृङ्गपद्माविव तत्र ताभ्याम् । सरोवरे वा हृदि कामिजेतुर्विरेजतुः सम्प्रसरच्छरे तु ॥ ४५॥ अपने सौन्दर्य से कामदेव की स्त्री रति को भी जीतने वाली उस सेठानी के हृदय रुप सरोवर में विद्यमान कुच अति श्याम मुख वाले चूचुकों से ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे गुलाबी रंगवाले कमलों के ऊपर बैठे हुए भौरे शोभित होते हैं ॥४५॥
भावार्थ सरोवर में जैसे जल भरा रहता है, कमल खिलते हैं, और उन पर आकर भौरे बैठते हैं वैसे ही सेठानी के हृदय पर जलस्थानीय हार पड़ा हुआ था और उसमें कमलतुल्य स्तन थे, तथा उनके काले मुखवाले चूचुक भौरे से प्रतीत होते थे।
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वपुः सुधासिक्त मिवातिगौरं वक्रं शरच्चन्द्रविचारचौरम् । यथोत्तरं पीवरसत्कु चोर : स्थलं त्वगाद्भर्भवती स्वतोऽरम् ॥४६॥
उस गर्भवती सेठानी का शरीर अमृत सिंचन के समान उत्तरोत्तर गौर वर्ण का होता गया, मुख शरद् ऋतु के चन्द्रमा की चन्द्रिका को भी जीतने वाला हो गया और उसके वक्ष:स्थल पर अवस्थित कुच उत्तरोत्तर उन्नत और पुष्ट होते चले गये ॥४६॥
भवान्धुपात्यङ्गि हितैषिणस्तुक् -सतो हितं गर्भगतस्य वस्तु ।
मत्वाऽर्ध सम्पूरितगर्ततुल्यामुवाह नाभिं सुकृतैक कुल्या ॥४७॥
उस सुकृतशालिनी सेठानी की नाभि जो अभी तक बहुत गहरी थी, वह मानों संसार- कूप में पड़े हुये प्राणियों के हितैषी गर्भ स्थित पुत्र के पुण्य - प्रभाव से भरी जाकर अधभरे गड्ढे के समान बहुत कम गहरी रह गई थी ॥४७॥
रागं च रोषं च विजित्य बालः स्वच्छत्वमञ्चेदिति भावनालः । द्वितयेऽवतारं द्वितयेऽवतारं कपर्दकोदारगुणो बभार ॥४८॥
शोर मुष्या
को
इसके गर्भ में स्थित जो बालक है, वह राग और द्वेष को जीतकर पूर्ण स्वच्छता ( निर्मलता ) प्राप्त करेगा, यह भाव प्रकट करने के लिये ही मानों उसके दोनों नेत्र कोड़ी के समान श्वेतपने को प्राप्त हो गये ॥४८॥
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