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________________ ------------- 45 --- निधूमसप्तार्चिरिवान्ततस्तु स्वकीयकर्मेन्धनभस्मवस्तु । जानीहि ते सम्भविपुत्ररत्नं जिनार्चने त्वं कुरु सत्प्रयत्नम् ॥४०॥ तुम्हारे सुमेरु के समान अतिधीर वीर पुत्र होगा । वह कल्पवृक्ष समान दानवीर होगा, समुद्र के समान सद्-गुणरुप रत्नों का भण्डार होगा, विमान के समान स्वर्गवासी देवों का भी वल्लभ होगा और अपने जीवन के अन्त में निर्धूम अग्नि के समान अपने कर्मरुप इन्धन को भस्मसात् करके शिवपद को प्राप्त करेगा। हे वेश्यवरोत्तम, तुम्हारे ऐसा श्रेष्ठ पुत्ररत्न होगा, यह तुम स्वप्नों का भविष्यफल निश्चय से जानो। अतः अब जिनेन्द्रदेव के पूजन-अर्चन में सत्प्रयत्न करो ॥३९-४०।। पयोमुचो गर्जनयेव नीतौ मयूरजाताविव जम्पती तौ। उदञ्चदङ्गे रुह सम्प्रतीतौ मुनेर्गिरा मोदमहो पुनीतौ ॥४१॥ मेघों की गर्जना सुनकर जैसे मयूर मयूरनी अति प्रमोद को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार वे दम्पती सेठ-सेठानी भी मुनिराज की यह उत्तम वाणी सुनकर अत्यन्त प्रमोद को प्राप्त हुए और उनका सारा शरीर रोमाञ्चित हो गया ॥४१॥ बभावथो स्वातिशयोपयुक्ति-मती सती पुण्यपयोधिशुक्तिः । मुक्तात्मभावोदरिणी जवेन समर्ह णीया गुणसंस्तवेन ॥४२॥ जैसे स्वातिनक्षत्र की बिन्दु को अपने भीतर धारण कर समुद्र की सीप शोभित होती है, वैसे ही अपने पूर्वोपार्जित सातिशय पुण्य के योग से मोक्षगामी पुत्र को अपने गर्भ में धारण कर वह सती सेठानी भी परम शोभा को प्राप्त हुई और गर्भ-धारण के निमित्त अपने उदर की कृशता को छोड़कर वह अनेक गुणों से संयुक्त होकर लोगों से पूजनीय हो गई ॥४२॥ तस्याः कृशीयानुदरो जयाय बलित्रयस्यापि तदोदियाय । श्रीविग्रहे स्निग्धतनोर्यथावत्सोऽन्तःस्थसम्यग्वलिनोऽनुभावः ॥४३॥ उस कृशोदरी सेठानी का अति कृश उदर भी तीन बलियों के जीतने के लिए उस समय उदय को प्राप्त हुआ, सो यह उस गर्भस्थ अति बलशाली पुत्र का ही प्रभाव था। अन्यथा कौन कृशकाय मनुष्य तीन बलशालियों से युद्ध में विजय प्राप्त कर सकता हैं ॥४३॥ भावार्थ - जब किसी कृशोदरी स्त्री के गर्भ रहता है, तो गर्भ-वृद्धि के साथ-साथ उसके उदर में जो त्रिबली (तीन बलें) होती हैं, वे क्रमशः समाप्त हो जाती हैं। इस बात को ध्यान में रखकर कवि उत्प्रेक्षा करते हुए कहते हैं कि किसी कृश शरीर वाले की यह हिम्मत नहीं हो सकती कि वह तीन बलशाली लोगों के मुकाबले में खड़ा हो सके। पर उस सेठानी का कृश उदर अपनी कृशता को छोड़कर जो वृद्धि को प्राप्त होता हुआ उन तीन बलियों का मान-भंग कर रहा था, वह उसके गर्भस्थ पुत्र के पुण्य का प्रताप था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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