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............ 32 1... कौटिल्यमेतत्खलु चापवल्ल्यां छिद्रानुसारित्वमिदं मुरल्याम् ।
काठिन्यमेवं कुचयोर्युवत्याः कण्ठे ठकत्वं न पुनर्जगत्याम् ॥३४॥ उस नगर में कुटिलता केवल धनुर्लता में ही देखी जाती थी, अन्य किसी भी मनुष्य में कुटिलता द्दष्टिगोचर नहीं होती थी । छिद्रानुसारिता केवल मुरली (बांसुरी) में ही देखी जाती थी, क्योंकि मुरली के छेद का आश्रय लेकर गायक लोग अनेक प्रकार के राग आलापते थे, अन्यत्र कहीं भी छिद्रानुसारिता नहीं थी, अर्थात् कोई मनुष्य किसी अन्य मनुष्य के छिद्र (दोष) अन्वेषण नहीं करता था । कठोरपना केवल युवती स्त्रियों के स्तनों में ही पाया जाता था, अन्यत्र कहीं भी लोगों में कठोरता नहीं पाई जाती थी। कण्ठ में ही ठकपना पाया जाता था, अर्थात् 'क' कार और 'ठ' कार इन दो शब्दों से बने हुए कण्ठ में ठकपना था, अन्य किसी भी मनुष्य में ठकपना अर्थात् वंचकपना नहीं था। भावार्थ वहां के सभी मनुष्य सीधे, सरल, कोमल और निश्चल थे ॥३४||
श्रीवासुपूज्यस्य शिवाप्तिमत्वात् पुरीयमासीद्वहुपुण्यसत्वा । सुगन्धयुक्तापि सुवर्णमूर्तिरिति प्रवादस्य किल प्रपूर्तिः ॥३५॥
यद्यपि यह नगरी पहिले से ही बहुत पुण्यशालिनी थी, तथापि बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्यस्वामी के शिवपद-प्राप्ति करने से और भी अधिक पूज्य हो गई। इस प्रकार इस पुरीने 'सुगन्ध युक्त सोना वाली लोकोक्ति की पूर्ति कर दी थी ॥३५।। व्याप्नोति वप्रशिखरैर्गगनं पुरं यत्,
पातालमूलमनुखातिकया स्म सम्यक। आरामधामधनतो धरणीं समस्तां,
लोकत्रयीतिलकतां प्रतियात्यतस्ताम् ॥३६॥ यह नगर अपने परकोटे के शिखरों से तो आकाश को व्याप्त कर रहा था, अपनी खाई की गहराई से पाताल लोक के तल भाग को स्पर्श कर रहा था और अपने उद्यान एवं धन-सम्पन्न भवनों से समस्त पृथिवी को आक्रान्त कर रहा था. इस प्रकार वह पुर तीनों लोकों का तिलक बन रहा था । (इससे अधिक उसकी और क्या महिमा कही जाय) ॥३६॥
अधरमिन्द्रपुरं विवरं पुनर्भवति नागपतेर्नगरं तु नः। भुवि वरं पुरमेतदियं मतिः प्रवितता खलु यव सतां ततिः ॥३७॥
इन्द्र का नगर स्वर्ग तो अधर हैं, निराधार आकाश में अवस्थित है, अतः बेकार है और नागपति शेषनाग का नगर पाताल में विवर रुप है, बिल (छिद्र) रुप से बसा है, अतएव वह भी किसी गिनती में आने के योग्य नहीं है। किन्त यह चम्पानगर पथ्वी पर सर्वाङरुप से सन्दर बसा हआ है और यहां
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